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आनन्द-प्रवचन भाग-४
द्वारा इनके भोगने का समय आने से पहले ही इन्हें क्षीण कर दिया जाता है । अर्थ यही है कि तप करने से पूर्व कर्म क्षीण हो जाते हैं, टूट जाते हैं या विसर्जित हो जाते हैं।
तो बंधुओ, आप तप का महत्व समझ गये होंगे कि किस प्रकार पूर्वकृत कर्मों को अतिशीघ्र ही केवल तप के द्वारा नष्ट किया जा सकता है। अगर जीवन में तपाचरण न किया जाय तो न जाने कितने जन्मों तक आत्मा को कर्मों का फल भोगना पड़ता है जबकि तप के द्वारा वह इसी जन्म में संपूर्ण कर्मों का क्षय भी कर सकता है ।
इसीलिये मेरा कहना है कि जब हमें मानव शरीर मिला है, कर्मों के कारनामों को जान लेने की शक्ति मिली है तथा उनके नाश के उपायों को समझ लेने की बुद्धि भी मिल गई है तो फिर क्यों न इस अमूल्य अवसर का लाभ उठाया जाय ? शरीर तो एक दिन नष्ट होना ही है अतः इसका सबसे अच्छा उपयोग यही है कि इसके द्वारा अधिक से अधिक तपाचरण किया जाय ताकि इसका मिलना सार्थक हो सके।
सारांश यही है कि तप के अभाव में पूर्व-कृत कर्मों की निर्जरा बिना उन्हें भोगे होना कठिन है अत. तपश्चरण करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। तप वह अग्नि है जिसमें अनेकानेक पाप तिनके के समान भस्म हो जाते हैं। शास्त्रों में कहा गया है
जह खलु मइल वत्थं, सुज्झइ उदगाइएहि दवेहि । एवं भावुवहाणेण, सुज्झए कम्ममट्ठविहं ॥
-आचारांग नियुक्ति २८२ जिस प्रकार जल आदि शोधक द्रव्यों से मलिन वस्त्र भी शुद्ध हो जाते हैं, उसी प्रकार आध्यात्मिक तपःसाधना द्वारा आत्मा ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्ममल से मुक्त हो जाता है।
स्पष्ट है कि व्यक्ति कितना भी विद्वान और शास्त्रों का जानकार क्यों न हो अगर वह तप नहीं करता तो उसका संसार मुक्त होना असंभव है
निउणो वि जीव पोओ, तव संजम मारुअ विहूणो । शास्त्र ज्ञान में कुशल साधक भी तप, संयम रूप पवन के बिना संसारसागर को तैर नहीं सकता।
तो बंधुओ, तप करना आत्म-कल्याण के लिये आवश्यक है अतः जिससे
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