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पाप-नाशक तप
___१२३ तो रोक दिया किन्तु पहले के बंधे हुए कर्मों का नाश कैसे हो ? उसके लिये तप ही एकमात्र साधन है।
आप विचार करेंगे कि जब संयम ग्रहण कर लिया और चारित्र्य में भी दृढ़ता आ गई तो फिर कर्मों का क्या काम ? पर नहीं, अभी मैंने बताया है कि चारित्र की दृढ़ता से नवीन कर्म नहीं बँधते किन्तु पहले के बंधे हए कर्मों का इलाज होना तो जरूरी है। और वह इलाज है कर्मों का भुगतान या उनका नाश ।
एक उदाहरण से विषय और भी स्पष्ट हो जाएगा। जैसे एक निर्धन व्यक्ति ने किसी से दो रुपये उधार लिये। उन्हें वह चुका नहीं पाया या चुकाना भूल गया। कुछ समय पश्चात् सौभाग्य के उदय से लक्ष्मी की उस पर कृपा हुई और वह धीरे-धीरे लक्षाधीश बन गया। अब जब वह लक्षाधीश बन गया तो स्पष्ट है कि उसे अब नवीन कर्ज किसी से लेना नहीं पड़ेगा। किन्तु लक्षाधीश होने से पूर्व उसने जो दो रुपये किसी से उधार लिये थे, वे उसके देने पर ही चुकेंगे न ? उसकी तिजोरी में भले ही लाखों रुपये पड़े रहें पर लिये हुए दो रुपये तो देने पर ही चुकेंगे।
इसी प्रकार चारित्र ग्रहण करने पर व्यक्ति भले ही नवीन कर्मों का आगमन रोक ले या शुभकर्मों का बंध कर ले किन्तु इससे पहले जो कर्म उसने बाँधे थे वे तो उस निर्धन व्यक्ति के उधार लिये हुए दो रुपयों को चुकाने के समान ही चुकाने पड़ेंगे । और इनको सामप्त करने के दो तरीके हैं एक तो उन्हें भुगत कर समाप्त करना, दूसरे इनको क्षीण कर देना या नष्ट कर
देना।
तो बाँधे हुए कर्मों को क्षीण करने का उपाय है तप । कवि ने एक सुन्दर दृष्टान्त अपने पद्य में दिया है- “या तो आम खुद पके या दूजे जरिये पाल ।"
यानी आम दो तरह से पकता है । एक तो वह वृक्ष पर लगा हुआ अपना समय आने पर स्वयं ही पक जाता है, दूसरे लोग उसे जल्दी पकाने के लिये तोड़कर घास में दबा देते हैं और वह समय से पहले ही पक जाता है । यही हाल कर्मों का है जिनके लिये कवि ने कहा है
____“या तो कर्म रस दे झड़े या तप से देवे गाल ।"
अर्थात्—या तो कर्म रस देकर झड़ते है यानी आत्मा नरक आदि हीन गति में जन्म लेकर वहाँ अपने समय पर इनका भुगतान करती है। यानी कर्मों के फल को भोगकर उन्हें समाप्त करती है और नहीं तो तपश्चर्या के
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