________________
११८
आनन्द-प्रवचन भाग-४
महाभारत के युद्ध में जब पांडव
पक्ष के लोगों ने देखा कि द्रोणाचार्य किसी प्रकार पराजित नहीं किया जा रहा है तो अश्वत्थामा नामक हाथी को मारकर युधिष्ठिर के द्वारा कहलवा दिया
'अश्वत्थामा हतः । " अर्थात्
अश्वत्थामा मारा गया ।
वीर द्रोणाचार्य ने जब धर्मपरायण युधिष्ठिर के मुंह से यह सुना कि अश्वत्थामा मर गया, तो उन्होंने विश्वास कर लिया कि मेरा पुत्र अश्वत्थामा मारा गया । यही पांडव पक्ष के व्यक्ति चाहते थे कि वे अश्वत्थामा नाम से अपने पुत्र का मर जाना ही समझें । परिणाम यह हुआ कि पुत्र-शोक के कारण उनके युद्ध-कौशल में कुछ शिथिलता आ गई और शत्रु पक्ष ने इसका लाभ उठा लिया ।
कहने का आशय यही है कि लोग अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर शब्द वही होते हैं, पर उनके अर्थ को अपनी इच्छानुसार मोड़ लेते हैं । यही हाल एकादशी के लिए कही हुई कहावत का भी हुआ है । पर यह हाल आज का है, अन्यथा वैदिक सम्प्रदाय के पुराणों में तो वर्णन है कि ऋषि महर्षियों ने साठ-साठ हजार वर्ष की भी तपस्या की है ।
युग
मुसलमान एकादशी या अष्टमी - चतुर्दशी नहीं मानते किन्तु उन्होंने रमजान का एक महीना ही निकाल लिया है, जिसमें वे रोजे रखते हैं । रोजे के दिन वे थूक निगलना भी धर्म के विरुद्ध मानते हैं और केवल रात्रि को चांद देखकर खाते हैं । अपने धर्म के अनुसार रात्रि को नहीं खाना चाहिए | किन्तु वे दिनभर न खाकर भी तप करते हैं । वास्तव में, भले ही वह अज्ञान तप है लेकिन तप तो है ही । आखिर दिन भर तो वे निराहार रहते ही हैं ।
मेरे कहने का अभिप्राय केवल यही है कि जैन धर्म के अलावा अन्य धर्मों में भी तप का विधान है और तप का उनमें भी बड़ा भारी महत्त्व माना
गया है ।
बाल्मीकि रामायण में कहा गया है
अध्रुवे हि शरीरे यो, न करोति तपोऽर्जनम् । सपश्चात्तप्यते मूढ़ो मृतो गत्वात्मनो गतिम् ॥
यह शरीर अध्रुव यानी अशाश्वत है; इसमें रहते हुए भी जो तप नहीं करता दुष्कर्मों का फल मिलता है, तब बहुत
वह मूर्ख मरने के बाद जब उसे अपने पश्चाताप करता है ।
तो बंधुओ, तप की महिमा महान् है । तप के द्वारा ही मनुष्य अपने इच्छित पद को प्राप्त कर सकता है तथा पापों का नाश करके अपनी आत्मा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org