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आनन्द-प्रवचन भाग-४
ओर कहीं पित्त बढ़ जाने से उल्टियां हो गईं तो ग्लानि पैदा होगी अतः मैं उपवास नही कर सकता।' ___इस स्थिति में धर्म दूसरा मार्ग बताता है—भाई ! उपवास नहीं कर सकते तो आयम्बिल कर लो । रूखा-सूखा ही सही तुम्हारे पेट में जाएगा और तुम्हें क्षुधा भी अधिक नहीं सताएगी । किन्तु उत्तर नकारात्मक ही होता है'रूखा-सूखा भी खाया जाता है क्या ? जिस प्रकार जानवर स्वादहीन घास खाते हैं, क्या मनुष्य भी उसी प्रकार मसाला, मिर्च, नमक और घी आदि से रहित कोरा धान खाए ? यह तो संभव नहीं है ।'
ऐसे व्यक्तियों के लिये फिर तीसरी राह भी निकाली जाती है एकासन कर लेने की। कहा जाता है-आयम्बिल करके रूखा-सूखा नहीं खाया जाता तो ठीक है स्वादिष्ट भोजन कर लो पर दिन में एक बार ही खाना !'
पर बन्धुओ, मैंने कहा है न कि आप लोग वणिक हैं और हमें भी चक्कर में डाल देते हैं । यह सही नहीं है क्या? आप कहेंगे सही किस प्रकार ? वह इस प्रकार कि हमारे पास तो आप एकासन का पचक्खाण करके जाते हैं पर घर जाकर एकासन के नाम पर कितनेक लोग पहले तो स्वादिष्ट भोजन खूब डटकर करते हैं और फिर वहीं आनन्द और आराम से लेट जाते हैं तथा एकाध नींद निकालकर 'फिर बैठते हैं और पुनः खा लेते हैं। अगर हम पूछ लेते हैं कि भाई ! यह क्या किया तुमने ? तो उत्तर मिलता है—'महाराज ! हम उठे थोड़े ही थे, एक एक ही आसन तो बैठे और लेटे थे।' .
अब बताइये, आपने हमें भी चक्कर में डाला या नहीं ? एकासन का क्या अर्थ लिया आपने ? एकासन से यह अर्थ लेना होता है कि बिछाए हुए उसी आसन पर बैठे-बैठे आप दिन भर में चाहे जितनी बार खा लो। वरन् एकासन का सही अर्थ है-'एक-असन', एक बार भोजन करना । पर आप तो हमारे भी आगे हो गए हमीं को भुलावे में डाल दिया।
अब श्लोक की अगली बात है—सामायिक करना । जब सन्त आपसे हार जाते हैं तो कह देते हैं- भाई लोगो ! जब आपसे उपवास, आयम्बिल, और एकासन आदि कुछ भी नहीं होता तो चलो, सामायिक करो ! वही सही । पर आप कहां पकड़ में आने वाले हैं ? कह देते हैं"घंटे भर तक एक स्थान पर बैठे रहना तो भी मुश्किल है।" फिर तो हमारी बुद्धि भी हार खा जाती है यह विचार करने में कि आखिर आपके लिए सरल क्या है ? आप माला नहीं फेर सकते क्योंकि भूल जाते हैं, आप नमोकार भी नहीं कर सकते क्योंकि 'बैड टी' लिये बिना आपसे बिस्तर पर से उठा नहीं
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