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हत्या और मृत्युदण्ड में कोई संगति नहीं
लोग मौत के नाम से डरते हैं। मौत के क्षण में कोई डर नहीं होता । जन्म और मृत्यु — दोनों अनिवार्य घटनाएं हैं। जितना स्वाभाविक है जन्म, उतनी ही स्वाभाविक है मौत । हर्ष और विषाद हमारी भावनात्मक मान्यताएं हैं | यथार्थ यह है कि वे दोनों हर्ष और विषाद से जुड़े हुए नहीं है ।
प्रश्न मौत की सजा का
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स्वाभाविक मौत होने पर सगे-संबंधियों और मित्रों को कष्ट होता है । दुर्घटना में मौत होने पर वह कष्ट बढ़ जाता है । आतंकवादी प्रवृतियों में मौत होने पर वह कष्ट भयंकर बन जाता है । उसकी व्यापकता भी बढ़ जाती है । केवल परिवार वालों को ही नहीं, हर संवेदनशील व्यक्ति को वह कष्ट सालता है । मृत्यु के साथ जितने हेतु जुड़ते हैं उतने जन्म के साथ नहीं जुड़ते । समाचार पत्र के पहले पृष्ठ पर सतवंतसिंह और केहरसिंह को दी गई फांसी का समाचार पढ़ा तो मन कांप उठा । इस बौद्धिक और वैज्ञानिक युग में कितनी बातें बदल
ई पर फांसी की सजा में बदलाव नहीं आया । क्या मौत की सजा को बदला नहीं जा सकता ? यह सोचते ही तर्क उभर आता है— हत्या करने वाले की हत्या न की जाए, हत्या करने वाले को हत्या का दण्ड नहीं दिया जाए तो हत्या का सिलसिला अंतहीन हो जाएगा। यह तर्क आपाततः यथार्थ लगता है । कुछ दूर चलने पर इसकी यथार्थता कोहरे में चली जाती है। क्या मृत्युदण्ड की व्यवस्था में मारने वालों की संख्या कम हुई है ? आँकड़े बता रहे हैं — हिन्दुस्तान में हत्या की घटनाएँ प्रतिवर्ष बाईस हजार होती हैं । मृत्युदण्ड बाईस हजार को नहीं मिलता वह दस-बीस लोगों को मिलता होगा । इसमें न्यायिक पक्षपात की बात नहीं है । कानूनी जटिलताएं इतनी अधिक हैं कि बहुत सारे हत्या करने वाले भी मृत्युदण्ड से बच जाते हैं ।
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हत्या और मृत्युदण्ड
आजीवन कारावास कोई कम दण्ड नहीं है । एक व्यक्ति को लम्बे समय तक कारावास के सींखचों में बन्द रखना, वैयक्तिक जीवन की सुविधाओं और पारिवारिक सम्बन्धों से वंचित रखना कोई दण्ड नहीं है । कुछ विचारक मृत्युदण्ड के पक्ष में नहीं हैं तो कुछ विचारक उसके पक्ष में है । पक्ष और प्रतिपक्ष को कभी समाप्त नहीं किया जा सकता । तर्क और प्रतितर्क के दरवाजे कभी बन्द
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