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८२ आमंत्रण आरोग्य को
गरिष्ठ भोजन भी खा लेता है पर उसका परिणाम यह होता है कि उसे डॉक्टर की शरण में जाना पड़ता है | यह प्रवृत्तिवादी दर्शन है । परिणामदर्शी आदमी वैसा नहीं कर सकता । वह जानता है कि हिंसा समस्या का समाधान नहीं हो सकती। गोली, तोड़-फोड़ आदि समस्या का समाधान नहीं हो सकता । समाधान तो अहिंसा हो सकती है ।
मानवीय एकता में विश्वास
स्वस्थ समाज की परिकल्पना का दूसरा सूत्र बनेगा- मानवीय एकता में विश्वास । आदमी में अपना अहं है इसीलिए वह घृणा को महत्त्व दे देता है। घृणा भी एक बार अच्छी लगती है पर उसका परिणाम क्या होता है, यह भी किसी से छिपा नहीं है । घृणा की भावना के कारण ही मनुष्य जाति कई भागों में बंट गई है । अमुक लोग छोटे हैं, अछूत हैं, काले हैं इसीलिए हमारे पास नहीं बैठ सकते, हमारे साथ एक वाहन में भी नहीं चल सकते, हमारी बस्ती में नहीं बस सकते- आदि कुछ ऐसी अहं वृत्तियां हैं, जिनसे आज भी आदमी ग्रसित है । दक्षिणी अफ्रीका इसी भयानक व्याधि से ग्रसित है । नीग्रो लोगों को लेकर यहां कितना भेदभाव बरता जा रहा है । महात्मा गांधी को इसीलिए वहां कितना कष्ट झेलना पड़ा था। आज भी वह समस्या पूरी नहीं सुलझी है।
विजातीय व्यवहार
आदमी ने आदमी को कितना बांट दिया है । यदि कोई पशु आदमी के साथ ऐसा व्यवहार करता तो हम मान सकते थे कि यह एक विजातीय व्यवहार है। पर आदमी ऊपरी आवरण के कारण, चमड़ी के कारण आदमी के साथ, अपनी जाति के साथ ऐसा व्यवहार करता है तो हम कैसे मान सकते हैं कि आदमी शिक्षित है, प्रबुद्ध और वैज्ञानिक है । अगर आदमी की दृष्टि वैज्ञानिक होती तो वह ऐसा कभी नहीं सोचता । आत्मानुशासन के अभाव में ही यह सब कछ होता है । जो समाज आत्मानुशासन से भावित होता है, वह शांतिपूर्ण सहअस्तित्व में विश्वास करता है । उसे हम चाहें तो अहिंसक समाज कह दें, शांतिवादी समाज कह दें, चाहें शोषणमुक्त समाज कह दें, वह वास्तव में स्वस्थ समाज है । समाजवादियों तथा साम्यवादियों ने भी ऐसे ही समाज की परिकल्पना की है | आत्मानुशासन के प्रशिक्षण के बिना, दूसरे शब्दों में अणुव्रत के प्रशिक्षण
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