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तन, मन और आत्मा का सामंजस्य १८७
शरीर का दूसरा रूप
प्रेक्षाध्यान योग पद्धति में शरीर पर बहत ध्यान दिया गया है। हमारे संतों ने शरीर को बहुत गालियां दी हैं । शरीर अशुचि है, मल-मूत्र का भंडार है, निकम्मा है, सब दोषों की खान है । न जाने शरीर को कितनी-कितनी गालियां दी गईं, बड़े अपशब्दों का प्रयोग किया गया शरीर के लिए | उन्होंने केवल आत्मा की बात कही-आत्मा को पकड़ो, चेतना को पवित्र बनाओ । इस बात पर बहुत ज्यादा बल दिया । क्या शरीर का केवल एक ही रूप है ? शरीर का कोई दूसरा रूप नहीं है ? शरीर अशुचि है, वह बीमार हो जाता है, बूढ़ा होकर नष्ट हो जाता है । ये सारी बातें हैं किन्तु केवल यही सोचना एकांगी दृष्टिकोण है | हमने केवल एक दृष्टि से शरीर को देखा है | शरीर को देखने का एक दूसरा दृष्टिकोण भी है । हम दोनों दृष्टियों से शरीर को नहीं देखेंगे तो पूरी बात समझ में नहीं आएगी । भगवान महावीर ने शरीर के बारे में बात कही
सरीर माहू नाव त्ति जीवो वुच्चइ नाविओ ।
संसारो अण्णओ वुत्तो जं तरंति महेसिणो ।। शरीर एक नौका है । जीव नाविक है | संसार समुद्र है | महर्षि लोग उसे पार कर लेते हैं ।
शरीर : बाधक भी, साधक भी
संसार का पार किसके माध्यम से प्राप्त होगा ? क्या नौका के बिना कोई समुद्र को पार कर पाएगा ? क्या जहाज के बिना कोई जलराशि को पार कर पाएगा ? कैसे संभव होगा ? यदि समुद्र को पार करना है, अथाह जलराशि से उस पार जाना है तो जलयान/नौका का सहारा लेना ही होगा | यह शरीर बाधक है तो साधक भी है । हम इस दृष्टि से विचार करें तो शरीर को समझने का एक नया आयाम हमारे सामने प्रस्तुत होगा ।
शरीर का बड़ा महत्त्व है | महाकवि कालिदास ने कहा-शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्-शरीर धर्म साधना का आदि-माध्यम है । शरीर स्वस्थ नहीं है तो साधना भी नहीं हो सकती । हम शरीर को समझें । आत्मा तक पहुंचने के लिए शरीर में कुछ रास्ते हैं । हम उन रास्तों को पकड़ें । उनमें सबसे पहला
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