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अहिंसा की आस्था ९९
स्वर्ग है या नरक । उसे तो दो पैसे चाहिए । ठीक यही बात, आज का मनुष्य 'कहां अच्छाई है और कहां बुराई है', इस बात की चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं समझता । वह केवल इतना जानता है कि जहां अधिकतम सुविधा, अधिकतम भोग मिले, वहीं कल्याण है । यह एक दृष्टि बन गई । इस परिस्थिति में और क्या कल्पना की जा सकती है ? सम्भावना भी नहीं की जा सकती । इस स्थिति में संघर्ष का बढ़ना अनिवार्य है ।
अहिंसा और सुविधावाद
हम दोनों बातों को साथ लेकर न चलें । दो घोड़ों की सवारी एक साथ नहीं की जा सकती । एक पर ही चढ़ा जा सकेगा । सुविधावाद पर चले तो जो हिंसा होती है, उसे स्वीकार करें क्योंकि यह इसका निश्चित परिणाम है। हम फिर क्यों घबराएं और क्यों कष्ट का अनुभव करें ? यदि हम यह चाहते हैं कि सामाजिक जीवन में अधिकतम अहिंसा या शांति हो, उपद्रव न हो, अपराध न हो, आक्रामक मनोवृत्तियां न हों, आतंकवाद न हो तो सुविधावादी दृष्टिकोण को बदलना होगा । दोनों बातें साथ नहीं चल सकतीं । हमें एक का चुनाव करना पड़ेगा । अधर में त्रिशंक की स्थिति बन जाती है । यह समय है चुनाव करने का । मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सुविधा न भोगें । यह कैसे कहा जा सकता है ? एक सामाजिक प्राणी, समाज में जीने वाला व्यक्ति सुविधा का अनुभव न करे, यह कैसे संभव है ? सुविधा को भोगना एक बात है और सुविधावादी दृष्टिकोण होना दूसरी बात है । जो सुविधा प्राप्त है, उसका उपयोग करने में अनर्थ जैसा मझे कुछ नहीं लगता, किन्तु जब येन-केन-प्रकारेण सुविधा ही प्राप्त करने का दृष्टिकोण बन जाता है तब समस्याएं पैदा होती हैं ।
वैज्ञानिक युग
- इस वैज्ञानिक युग ने मनुष्य के लिए सुविधा के बहुत साधन जुटाए हैं। यह स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं है । विज्ञान ने सुविधा के साधन जुटाए हैं तो साथ-साथ में उद्दण्डता, उच्छंखलता और अपराध के साधन भी जुटाए हैं । दोनों बातें साथ-साथ चल रही हैं।
एक व्यक्ति के पास फ्रीज है, पंखा है, वातानुकूलन है । ये सारी सुविधाएं
या मात्र मासण्डता, उप
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