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अहिंसा का विकास १०७
तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें तो कर्म-शास्त्रीय भाषा में कर्म का संस्कार और विज्ञान की भाषा में या आनुवंशिकी भाषा में 'जीन'- ये दोनों बहुत निकट आ जाते हैं। इन दोनों को परिवर्तित करना कठिन माना जाता है । कर्म-संस्कार को बदलना और जीन को बदलना सरल काम नहीं है ।।
एक व्यक्ति बहुत अच्छा व्यवहार करता है, दूसरा बुरा व्यवहार करता है | तीसरा उससे अधिक बुरा व्यवहार करता है और चौथा उससे भी अधिक बुरा व्यवहार करता है । यह अन्तर इसीलिए आता है कि सबके कर्म-संस्कार भिन्न-भिन्न हैं या आनुवंशिकी भाषा में सबके जीन भिन्न-भिन्न हैं । इसीलिए सबका व्यवहार एक जैसा नहीं होता । इसे बदलना बहुत प्रयत्न-साध्य है, सरल नहीं है । जो व्यक्ति साधना के क्षेत्र में बहुत प्रयत्नशील होता है, वही इन्हें बदल सकता है | बदलना संभव है पर उतना परम पुरुषार्थ करना हर व्यक्ति के वश की बात नहीं है और हर कोई व्यक्ति उतना पुरुषार्थ करना भी नहीं चाहता ।
वातावरण
अहिंसा के विकास का तीसरा विघ्न है— परिस्थिति या वातावरण । यह विघ्न कर्म-संस्कार या जीन जैसा प्रबल नहीं है । इन दो का पार पाना कठिनतर कार्य है । हम इनकी सीमा पार कर चुके हैं । अब दूसरे सारे जो विघ्न हैं वे बदले जा सकते हैं और उन्हें बदलना सरल कार्य है । आज परिस्थिति है हिंसा की, इसमें कोई सन्देह नहीं है । आदमी जिस दुनिया में जीता है उसमें हिंसा का वातावरण भी है, हिंसा की परिस्थितियां भी हैं । परिस्थितियां हिंसा के लिए उत्तेजना पैदा कर रही हैं । एक व्यक्ति शांत है किन्तु दूसरा व्यक्ति भड़काने वाली प्रवृत्तियां करता है तो जो शांत है, वह भी हिंसोन्मुख बन जाता है । ऐसा बहुत बार होता है । पड़ोसी यदि दुष्ट स्वभाव वाला है, हिंसा में विश्वास करने वाला है और वह अवांछनीय प्रवृत्ति करता है तो जो अच्छा व्यक्ति है, अच्छे स्वभाव वाला है, उसमें भी उत्तेजना के बीज अंकुरित हो जाते हैं ।
प्रतिक्रियात्मक हिंसा
एक पड़ोसी ने अपने घर से कूड़ा-कचरा निकाला और पास वाले घर के सामने डाल दिया । सामने वाले व्यक्ति ने कहा- भाई ! ऐसा क्यों करते
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