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१६४ आमंत्रण आरोग्य को
कर सकूँ और मेरी बुराई छूट जाए ।' यमराज ने कहा-बड़ा अच्छा आदमी है । अपनी सचाई अपने-आप बयान कर रहा है, सुधरना भी चाहता है । यमराज ने कहा-'मेरी इच्छा थी, तुम्हें नरक में भेजूं पर तुमने जिस भावुकता का परिचय दिया, उससे मैं प्रभावित हुआ हूं । मैं तम्हें नरक में नहीं भेजूंगा । तुम इस संन्यासी के साथ रहो ताकि तुम्हारे मन में जो प्रेरणा जागी है, उसे तुम साकार कर सको और अच्छे आदमी बन सको ?' संन्यासी ने कहा-'महाराज ! यह क्या कर रहे हैं ? मैंने जीवन-भर नियस-व्रत पाले हैं । अपना भला किया है, लोगों का भला किया है । मैं स्वर्ग में जाने का अधिकरी हूं और आपने इस डाकू के साथ कर दिया । आप अपने फैसले को बदल लें । इसे नरक में भेजें
और मुझे स्वर्ग में ।' यमराज ने कहा- 'तुमने बहुत गलत बात कही है । मैं तुम्हें दण्ड देता हूं | जाओ, तुम इस डाकू की सेवा में रहो !' संन्यासी ने कहा'मुझे तो स्वर्ग मिलना चाहिए। आपके यहां भी अन्याय होता है ! यह क्यों?' यमराज ने कहा, 'निश्चित ही तुमने सौ अच्छे काम किए होंगे पर तुम्हारा अहंकार गया नहीं । अतः तुम्हें इस डाकू की सेवा में रहना ही होगा ।' दो मार्ग
अहंकार नहीं जाता है तो पासा पलट जाता है; नियंत्रण की बात दूर चली जाती है, मन ज्यादा चंचल हो जाता है । यह कोरी पढ़ाई-लिखाई मन को कभी शांत नहीं करती । जिन लोगों में अपने ज्ञान का, अपनी पढ़ाई का अहंकार जाग जाता है, उनका मन और ज्यादा चंचल हो जाता है । मन पर नियंत्रण करने की चाभी उन्हें नहीं मिलती । इस चाभी को पाने के लिए साधना के मार्ग पर, ध्यान के मार्ग पर चलना जरूरी है । एक अनपढ़ आदमी कुछ भी नहीं जानता किन्तु वह अपने मन पर इतना नियंत्रण कर सकता है कि जिसकी कोई कल्पना नहीं की जा सकती । छोटे-छोटे बच्चे आठ दिन का उपवास करते हैं । आठ दिन तक कुछ नहीं खाना, जीभ को सम्पूर्ण विराम दे देना, क्या आश्चर्य नहीं है ? यह कला पढ़ाई से नहीं आती । यह आता है साधना का मार्ग जागने से, धृति का विकास होने से । उपभोग की प्रचुर सामग्री होने पर भी इन्द्रियों का निग्रह करना वास्तव में विस्मयकारी बात है ।
दो मार्ग हैं—एक है बौद्धिक विकास का मार्ग और दूसरा है साधना के विकास का मार्ग । बौद्धिक विकास का मार्ग जानकारी देने वाला मार्ग है । हम
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