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अहिंसा का विकास १०९
को मौत के घाट उतार दिया, न जाने कितनी डकैतियां कीं । डाकू बनने के पीछे भी बहुत सारी प्रतिक्रियात्मक परिस्थितयां होती हैं और ऐसी घटनाएं सामने आती भी हैं । ये सामाजिक परिस्थितियां अहिंसा के विकास में बहुत बाधक हैं । यदि परिस्थिति, वातावरण और व्यवस्था समतापूर्ण नहीं होती है, ज्यादा असंतुलित होती है तो हिंसा को बहुत बल मिलता है ।
शारीरिक कारण
अहिंसा के विकास में चौथा विघ्न है-शरीरगत रसायन । प्रश्न परिस्थिति की जटिलता में हिंसा को उत्तेजना मिलती है किन्तु ऐसे लोग भी हिंसा करते हैं जिनके सामने कोई परिस्थिति नहीं, कोई हिंसा नहीं, कोई वातावरण नहीं, फिर भी हिंसा में बहुत रस लेते हैं । ऐसा क्यों होता है? इस पर हम चिंतन करें । कोई भी बात एकांगी दृष्टि से सही नहीं है और किसी घटना का एक ही कारण नहीं होता । हिंसा की जितनी घटनाएं हैं, उनका एक ही कारण नहीं है, अनेक कारण हैं । इसीलिए विश्लेषण करते समय हमें बहुत सूक्ष्मता से ध्यान देना होता है कि किसके पीछे क्या कारण रहा है?
हिंसा का एक कारण तंत्रिका के रसायन का असंतुलन भी है | हमारी तंत्रिकाओं में पैदा होने वाले रसायन असंतुलित होते हैं, तो व्यक्ति हिंसक बन जाता है, आक्रामक बन जाता है । आक्रामक वृत्ति में शरीर की क्रिया का भी बहुत बड़ा भाग है।
असंतुलित रसायन
एक संपन्न व्यक्ति है । उसके कोई कमी नहीं, कोई असंतोष नहीं, सर्वथा सुखी, फिर भी उसमें हिंसा की वृत्ति जाग जाती है । एक व्यक्ति न चोर है, न डकैत है, कुछ भी नहीं । वह आदमी को मारने में रस लेता है । आदमी मिलता है और वह उसकी कनपटी को दबाकर मार डालता है । यह घटित घटना है । उसे न कोई लेना है, न देना है । वह न धन लूटता है और न कुछ । उसका केवल इतना ही नशा है कि आदमी को मार डालना ।।
ऐसा क्यों होता है ? तंत्रिका के रसायन असंतुलित बन जाते हैं और उस असंतुलन के कारण हिंसा में आदमी का रस पैदा हो जाता है | यह असंतुलन शरीरगत कारण है। आज शारीरिक तत्त्वों के कारण भी हिंसा को बल मिल
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