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को बुझाना है । वह बुझेगी तो अपने आप शांति हो जाएगी । शांति के लिए अलग से प्रयल नहीं करना पड़ेगा ।
बाधा है धारणा
अहिंसा की आस्था उत्पन्न करने में बाधाएं भी कमजोर नहीं है, बहुत प्रबल हैं । जब तक उन बाधाओं पर हम विचार नहीं करेंगे, केवल आस्था उत्पन्न करने की बात ज्यादा सार्थक नहीं बनेगी। सबसे पहली बाधा है- हमारी धारणा। हम मान बैठे हैं कि समाज की इस प्रतिकूल परिस्थिति में, प्रतिकूल वातावरण में, आर्थिक वैषम्य वाले वातावरण में, अहिंसा की बात कैसे सोची जा सकती है ? कब तक सोची जा सकती है ? और इसीलिए कुछ राजनीतिक प्रणालियों में हिंसा का समर्थन किया गया ।
एक सामाजिक व्यवस्था, समतापूर्ण सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक समानता वाली सामाजिक व्यवस्था लाने के लिए हिंसा का सहारा भी लिया जा सकता है । इस विचारधारा ने काफी लोगों को आकृष्ट भी किया है पर समय के साथ यह बात बहुत स्पष्ट होती गई कि स्व-नियन्त्रण का विकास हुए बिना, हिसा के द्वारा नियंत्रित सामाजिक प्रणाली भी बहुत अच्छी नहीं हो सकती और उसका रूप भी सामने आया । इतने नियंत्रण में भी आदमी जैसा चाहिए वैसा नहीं बना । समस्याएं हैं उनके सामने और ऐसी टिप्पणियां देखने को मिलती हैं कि इतने नियंत्रण के बाद भी आदमी का हृदय नहीं बदला, मस्तिष्क नहीं बदला । इसका कारण यही है कि बदलने की बात है भीतर और नियंत्रण की बात है बाहर | बाहर से आदमी को बांधकर रख दें किन्तु भीतर में उसका प्रभाव नहीं होता । जैसे ही हाथ खुलते हैं वह वैसा ही करने को तैयार हो जाता है । यह कोई बदलाव की स्थिति नहीं है । यह तो एक निरोध की स्थिति है । किसी को कारावास में डाल दिया गया, वह चोरी कैसे करेगा ? किन्तु कारावास में ऐसे बहुत से लोग हैं कि जो अनेक बार अपराध कर-कर कारावास में आते हैं । उनमें परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता ।
शक्तिशाली कौन ?
एक प्रश्न है परिस्थिति शक्तिशाली है या चेतना शक्तिशाली है ? यदि परिस्थिति शक्तिशाली है तो फिर उसे बदलने का कोई उपाय नहीं है | जो
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