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२८. निष्काम कर्म और गीता
पटना विश्वविद्यालय में आचार्यप्रवर का स्वागत हो रहा था । स्वागत में हिन्दी के प्रसिद्ध कवि रामधारीसिंह दिनकर बोल रहे थे। उन्होंने अपने भाषण में कहा- 'आज की एक बहुत बड़ी समस्या है | वह समस्या है प्रवृत्ति की। आज प्रवृत्ति-बहुल-युग है | प्रवृत्ति इतनी बढ़ गई है कि उससे मानसिक तनाव, मानसिक कुंठा और मानसिक बीमारियां पैदा हो रही हैं ।'
प्रवृत्ति : जीवन की अनिवार्यता
जहां प्रवृत्ति अपनी सीमा से परे जाती है, वहां समस्या पैदा होती है । केवल निवृत्ति से काम नहीं चलता । एक प्रश्न आज से नहीं, बहुत पुराने काल से मनुष्य के सामने रहा है कि वह प्रवृत्ति करे या निवृत्ति ? दोनों में से किसको महत्त्व दे ? धर्म ने निवृत्ति की बात कही, किन्तु जीवन की कहानी ऐसी है कि प्रवृत्ति के बिना काम नहीं चलता | शरीर प्रवृत्ति के बिना काम नहीं देता। मन अपने आप में प्रवृत्ति करता रहता है और वाणी की भी प्रवृत्ति होती है। प्रवृत्ति हमारे जीवन की चर्या के साथ जुड़ी हुई है और निवृत्ति की बात एक अपेक्षा के साथ आई है ।
प्रवृत्ति और निवृत्ति, सक्रियता और निष्क्रियता, कर्म और अकर्म- यह द्वंद्व बराबर चलता रहता है । धर्म की दो धारणाएं बन गईं । एक है प्रवर्तक धर्म और दूसरा है निवर्तक धर्म । प्रवर्तक धर्म के साथ निवर्तक धर्म नहीं है, यह नहीं कहा जा सकता । निवर्तक धर्म के साथ प्रवर्तक धर्म नहीं है, यह भी नहीं कहा जा सकता । समस्या यह है- कोई भी आदमी प्रवृत्ति को छोड़ नहीं सकता । वह जीवन की अनिवार्यता है । इस स्थिति में वह क्या करे ?
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