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९४ आमंत्रण आरोग्य को
चिन्तन दिया है । उन्होंने कहा 'कभी-कभी ऐसा होता है कि हर आदमी आत्मा की आवाज की दुहाई दे देता है किन्तु जो व्यक्ति राग, द्वेष, घृणा, ईर्ष्या आदिआदि से आक्रान्त है और वह कहता है कि मेरी आत्मा की आवाज है, यह भ्रान्ति है । उसके आत्मा होती ही नहीं । आत्मा की आवाज आएगी ही कहां से ? जो वीतराग बन चुका, राग-द्वेष से परे जा चुका, जिसका चित्त निर्मल हो चुका, वह आदमी कह सकता है- यह मेरी अन्तरात्मा की आवाज है |
प्रश्न है प्रयोग का
इसी प्रकार गीता के इस सिद्धान्त का भी दुरुपयोग हो रहा है । हर कोई कह देता है- मैं अनासक्त भाव से कर्म कर रहा हूं । यह दुहाई दे दी जाती है किन्तु अनासक्त भाव आएगा कहां से? उसके पीछे कितनी साधना चाहिए? जितना बड़ा सिद्धान्त है, उतनी ही बड़ी साधना चाहिए | जब तक वह साधना नहीं होती, जीवन में अनासक्ति नहीं आती और ऐसी स्थिति में काम करते हुए भी निष्काम बन जाए, अकर्म बन जाए, यह सम्भव नहीं है।
एक बार अहमदाबाद में गीता-प्रेमी लोग बैठे थे, बातचीत हो रही थी। बातचीत के दौरान मैंने कहा- 'आज गीता पर बहुत प्रवचन हो रहे हैं, व्याख्याएं भी होती हैं । गीता के प्रवचनकार तो हैं पर गीता का प्रयोगकार मुझे कोई नहीं मिला । यह सिद्धान्त दे दिया कि तुम कर्म करते हुए भी अकर्म बन सकते हो । निष्काम कर्म फलाशंसा छोड़ने से हो सकता है । इतना महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त तो दे दिया किन्तु होगा कैसे ? हमने आधी बात को पकड़ लिया, आधी वात को छोड़ दिया । केवल जानने मात्र से कोई अनासक्त नहीं बन जाता । प्रयोग करना होता है पर आज प्रयोग कौन करता है ? बहुत लोग कहते जानते भी नहीं। गीता में साधना के महत्त्वपूर्ण सूत्र हैं | उन पर ज्ञानेश्वरी ने काफी प्रकाश डाला है, प्रयोगों की भी सुन्दर चर्चा की है और भी कुछ व्याख्याओं में प्रयोगों की चर्चा है किन्तु साधारणतया वे सारे प्रयोग छूट गए ।
यज्ञ का अर्थ
प्राण में अपान का होम करना और अपान में प्राण का होम करना यज्ञ है ? द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, स्वाध्याययज्ञ, ज्ञानयज्ञ- ये सारे यज्ञ थे | ज्ञानयज्ञ छूट गया, स्वाध्याययज्ञ छूट गया, तपोयज्ञ छूट गया । जो प्राण और अपान
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