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९२ आमंत्रण आरोग्य को
जाता है ।
विरति : निष्काम कर्म
आज की जो बड़ी समस्या है, वह है सकाम कर्म की । आदमी कर्म करता है और कर्म के साथ अनेक कामनाओं से बंधता जाता है । चाहे कोई मोक्ष की दृष्टि से विचार करे या न करे, यह दूसरा प्रश्न है । पहला प्रश्न हैमानसिक शांति का, मानसिक सुलझाव का । मन शान्त रहे, स्थिर रहे, मन में आवेग न बढ़े, बुरे विचार न आएं, बुरी भावनाएं न पनपें, इसके लिए कामना से मुक्त होना बहुत जरूरी है ।
व्यक्ति के भीतर बंधन का एक ऐसा बीज है कि वह काम नहीं करता हुआ भी वंधता चला जा रहा है | काम करता है तब तो बंधता ही है और काम नहीं करता है तब भी वंधता चला जाता है | भीतर में कामना वरावर काम करती रहती है । मनोविज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में तनाव की चर्चा बहुत होती है । मेंटल टेशन जो बढ़ता है, वह एक साथ नहीं बढ़ता । भीतरही-भीतर एक प्रकार की आग जलती रहती है और वह तपाती रहती है । उसकी गर्मी निरन्तर बनी की बनी रहती है । वह गर्मी कभी शान्त नहीं होती | वह है आन्तरिक कामना की गर्मी । उसे जैन परिभाषा में अविरति कहा गया । वह सोते-जागते, शयनकाल में भी बराबर सक्रिय रहती है, तनाव को निरन्तर पैदा करती रहती है । इस तनाव से मुक्त होने का महत्त्वपूर्ण सूत्र है—विरति । गीता की भाषा में यही है-निष्काम कर्म ।
समस्या का मूल
एक बार जोधपुर में कुछ डॉक्टरों की कान्फ्रेंस थी । कुछ लोग प्रेक्षाध्यान के संदर्भ में मिले । उन लोगों ने कहा- 'यदि एक मानसिक तनाव की समस्या को ही लिया जाए और उसका भी थोड़ा बहुत प्रतिकार हो सके तो यह सारे संसार के लिए बहुत बड़ा वरदान होगा।' बात सही है, तनाव ही सभी समस्याओं का मूल है । तनाव बढ़ता है आकांक्षा से, कामना से ।
भीतर में कामना का इतना तीव्र प्रवाह रहता है कि आदमी उसे पार नहीं कर पाता | जब तक अविरति या कामना का द्वार बंद नहीं होता, संवर नहीं होता, पानी आने का मार्ग खुला-का-खुला रहता है तब तक तनाव से छटकारा
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