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९० आमंत्रण आरोग्य को
प्रश्न है फलश्रुति का
प्रवृत्ति की फलश्रुति क्या है और निवृत्ति की फलश्रुति क्या है ? यह प्रश्न बहुत चर्चित रहा दार्शनिक जगत् में । इस पर कुछ लोग एकांगी दृष्टि से कहने लगे- आदमी को निवृत्त हो जाना चाहिए, प्रवृत्ति को छोड़ देना चहिए । यह भी एक धारा रही है । कुछ परम्पराओं में चिंतन इतना आगे बढ़ गया कि आंख देखती है तो विकार पैदा होता है इसलिए आंख को फोड़ देना चाहिए । अनेक साधकों ने आंखें फोड़ी हैं । यह कोई कहानी नहीं है, यह एक परम्परा रही है। कान पर भी रोष किया गया, कान से सुनना भी नहीं चाहिए | इस अवधारणा का मंतव्य था- इन्द्रियों की कोई प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए । हिन्दुस्तान में ऐसे संन्यासी हैं जो वहां नहीं जाते जहां स्त्रियां सामने होती हैं और यदि वे जाते हैं तो पहले स्त्रियों को वहां से हटा देते हैं । एक ओर यह विकास हुआ तो दूसरी ओर अति प्रवृत्तिवाद भी चला |
गीता में कर्म, अकर्म और विकर्म- इन तीनों की मार्मिक विवेचना प्राप्त होती है । उसने निष्काम कर्म का बहुत महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया । यह सिद्धांततः स्वीकार किया गया कि दुनिया में कोई भी आदमी ऐसा नहीं होता, जो अकर्म बन सके। यह सम्भव नहीं है । तो फिर बंधन से मुक्त कैसे हुआ जा सकता है ? और कैसे मानसिक शांति प्राप्त हो सकती है ? इसके समाधान में एक नया सूत्र खोजा गया । कहा गया- कर्म करते हुए भी अकर्म रहा जा सकता है । यह प्रसिद्ध बात है-- करता हुआ भी नहीं करता, सुनता हुआ भी नहीं सुनता, देखता हुआ भी नहीं देखता । यह नया प्रतिपादन था ।
कठिन है निवृत्ति
एक जैन साधक था जापान में । उसके पास एक व्यक्ति आया और बोला, 'आपकी साधना क्या है ?'
वह बोला, "भूख लगती है तब खा लेता हूं और नींद आती है तब सो जाता हूं । बस, यही मेरी साधना है।'
'यह तो मैं भी करता हूं फिर आप कौन-सी नयी बात करते हैं ?' 'तुम नहीं करते । तुम ऐसा कर नहीं सकते ।' 'कैसे नहीं कर सकता ?'
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