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७. निर्णायक स्वयं उलझा हुआ है
विकास की त्रिपदी
समर्पण, पराक्रम और निर्णायक शक्ति - यह विकास की त्रिपदी है । समर्पण का अर्थ है निश्छिद्र श्रद्धा । उसकी दुहाई बहुत है, उपलब्धि दुर्लभ | क्या कोई आदमी दूसरे के विचारों के साथ तदात्म हो सकता है ? क्या दो जनो के स्वार्थ एकात्मक हो सकते हैं ? प्रत्यक्ष जीवन में इसकी संभावना बहुत कम है । परमात्मा परोक्ष सत्ता है इसलिए उसके साथ तादात्म्य जोड़ा जा सकता है । एक आदमी दूसरे आदमी के साथ जीता है, वह प्रत्यक्ष है । उसके प्रति तादात्म्य की बात सोचना द्वैत में अद्वैत की खोज जैसा है, कठिन बात है । बहुत लोग अपने प्रति भी समर्पित नहीं है तब दूसरे के प्रति समर्पित होने की बात कैसे की जाए ? एक आदमी अकेला जीता है, एकान्त में अपनी परिपूर्णता की कल्पना संजो लेता है और अपने प्रति पूर्ण समर्पण की अनुभूति करता है किन्तु उसकी श्रद्धा उस समय कसौटी पर चढ़ जाती है, जब वह समूह का जीवन जीता है । समूह में सब लोग समान नहीं होते । विभिन्न प्रकृति, विभिन्न रुचि, विभिन्न विचार, आचार और व्यवहार के लोग होते हैं । उनकी ओर से आने वाले आघात और प्रतिघातों के क्षण बड़े संवेदनशील होते हैं । उन क्षणों में अपने प्रति पूर्ण समर्पित रहना सचमुच घोर तपस्या है ।
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समर्पण: अवसरवादिता
जो अपने प्रति समर्पित नहीं होता, वह दूसरों के प्रति समर्पित कैसे होगा ? समर्पित कोई दूसरे के प्रति होता ही नहीं । वह समर्पित होता है अपने विचारों
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