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८. प्रतीक्षा का क्षण
परिवर्तनशील है जगत्
इस परिवर्तनशील जगत् में सब कुछ बदलता है फिर शब्द अपरिवर्तित कैसे रह सकता है ? शब्द भी बदलता है और उसका अर्थ भी बदलता है । किसी समय संप्रदाय शब्द का अर्थ गरिमापूर्ण था । वह सूचक था गुरु परम्परा और उसके आम्नाय का । शताब्दियों तक उसकी गरिमा बनी रही । अर्थ का परिवर्तन घटना के साथ जुड़ा होता है । संप्रदायों ने अवांछनीय व्यवहारों का सहारा लिया, परस्पर कटुता के बीज बोए । परिणाम यह हुआ है— संप्रदाय और सांप्रदायिकता अपनी गरिमा को खो बैठे। आज उनके साथ हल्केपन की अनुभूति जुड़ गई है। इसका मूल हेतु है— अपने संप्रदाय के उत्कर्ष की स्थापना और दूसरे के प्रति घृणा के बीज बोना । मनुष्य में अपनी दुर्बलताएं होती हैं । वे किसी भी रूप से प्रकट हो जाती हैं। अपने आपको महत्त्व देना, अपनी विचारधारा को महत्त्व देना, अपनी शक्ति को बढ़ाना, अपने परिपार्श्व में संख्या का विस्तार करना ये सारी प्रवृत्तियां संप्रदाय के लिए विष- बीज बनी हुई हैं । इन्हीं के कारण संप्रदाय की सीमा में कलह और संघर्ष होते रहे हैं ।
प्रश्न भेद और अभेद का
वर्तमान युग में सांप्रदायिकता को कम करने के लिए अनेक प्रयत्न किए जा रहे हैं । उनमें एक प्रयत्न है तुलनात्मक अध्ययन । प्रायः सभी धर्म-संप्रदायों ने अहिंसा और सत्य को प्रतिष्ठा दी है इसलिए उनके मूल तत्त्व एक जैसे लगते हैं। कहा भी जाता है- सब धर्मों की मूल बात तो एक ही है । हमने सबमें
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