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३६ · आमंत्रण आरोग्य को
समता और स्वतन्त्रता
भगवान् महावीर समतामूलक स्वतन्त्रता के पुरस्कर्ता थे । उन्होंने समताविहीन स्वतन्त्रता को मूल्य नहीं दिया । समता और स्वतंत्रता- दोनों अविच्छिन्न भाव से जुड़े हुए हैं । कोरी स्वतन्त्रता की आवाज अर्थहीन आवाज है । आजादी की इतनी लम्बी यात्रा के उपरान्त भी जनता का ध्यान समता पर केन्द्रित नहीं हुआ है । आर्थिक विषमता को लेकर यदा-कदा चर्चा होती है । वह चर्चनीय विषय है पर उससे भी अधिक चर्चनीय विषय है मानवीय समानता का स्तर । अर्थार्जन में व्यावसायिक बुद्धि का तारतम्य हो सकता है | उसके आधार पर किसी को अर्थ का अधिक लाभ हो सकता है, किसी को कम लाभ हो सकता है । इससे मानवीय समानता की धुरी नहीं टूटेगी । वह तब टूटती है, जब एक मानव दूसरे को अपने दर्जे का नहीं मानता |
साफ नहीं है मति और मनीषा
मान्यता का अहंकार कोई नया नहीं है । पुराना होने पर भी सर्वथा अवांछनीय है । इसने समय-समय पर सांस्कृतिक अवरोध उत्पन्न किए हैं । यदि ये अवरोध नहीं होते तो हिन्दुस्तान आज कितना बड़ा होता? क्या बृहत्तर भारत लघु भारत बनता? क्या भारतीय सांस्कृतिक चेतना संकीर्णता की सीमा में आबद्ध होती? अतीत की स्मृति से क्या ? वर्तमान का धुंधलका भी साफ नहीं हो रहा है । आज भी मति और मनीषा साफ नहीं है । महावीर ने कहा था- प्राणी मात्र को अपने समान समझो और संकट यह है— आदमी आदमी को अपने समान नहीं समझ रहा है | इस आत्मिक समानता के सिद्धान्त का जितना धार्मिक मूल्य है, उतना ही सामाजिक मूल्य है । इस मूल्य के व्यापक होने में बाधा कहां है ? इसकी मीमांसा जरूरी है । क्या अविकसित सामाजिक चेतना बाधा है ? अथवा धर्म की अवधारणा बाधा है ? अथवा आंतरिक मूर्छा, स्वार्थ, अहंकार आदि बाधा है ?
बाधा है मूर्छा
पहली बाधा चेतना की मूर्छा है । इस पर हमारा ध्यान कम जा रहा है । इस सचाई को समझने में एक कहानी बहुत उपयोगी होगी । पिता ने पुत्र
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