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धर्म समन्वय और वैचारिक स्वतंत्रता ४९ बना रहे तो संप्रदायों की अनेकता कोई समस्या नहीं है । समस्या है असहिष्णुता । उसे कम करने की दिशा में हमारा प्रयत्न होना जरूरी है । इस कार्य में अनुयायी की अपेक्षा धर्म गुरू का दायित्व अधिक है । धर्म की धारणा के लिए वर्तमान शिक्षा वैसे ही अनुकूल नहीं है । आज के पढ़े-लिखे युवक की धर्म में सहज रुचि नहीं है, फिर वह धर्म-संप्रदायों के झगड़े को देखता है तो उसकी जो थोड़ीबहुत रुचि होती है, वह भी समाप्त हो जाती है । इसलिए इस विषय पर हमारा ध्यान केन्द्रित होना चाहिए ।
चिन्तनीय प्रश्न
आज ऐसा लगता है— हिन्दू समाज संगठित कम है, उसमें बिखराब ज्यादा है । इसका एक कारण उसकी अपनी विशाल संख्या है पर दूसरा कारण भी है और वह है उदासीनता | विचार की स्वंत्रता से कोई धर्म-परिर्वतन करे तो उसे क्षम्य मानना चाहिए किन्तु हिन्दू समाज की उदासीनता, उपेक्षा और भाईचारे की कमी के कारण कोई धर्म-परिवर्तन करता है तो क्या वह चिन्तनीय नहीं
कुछ शताब्दियों पूर्व हिन्दू लोग कुछेक देशों में थे । अब वे विश्व के कोनेकोने में फैले हुए हैं । उनका क्षेत्र बढ़ा है । क्षेत्र बढ़ने के साथ-साथ उनकी गुणवत्ता भी बढ़नी चाहिए । लंदन (२६ अगस्त ८९) में होने वाला यह विश्वहिन्दू-सम्मेलन सर्व धर्म समभाव, समन्वय और संगठन की भूमिका तैयार कर पाएगा, यह कल्पना ही सुखद है |
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