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जीवन और जिविका के बीच भेदरेखा खींचे ५७
होने के बाद सब राजे पछताते पर अपने राज्यकाल में इस समस्या पर किसी ने भी गहरा चिन्तन नहीं किया । राजा प्रद्युम्न के मन में एक विचार उभरा । यदि मैं वर्तमान को पकडूं तो भविष्य की चोटी मेरे हाथ में आ सकती है । अपनी चोटी को पकड़े बिना अपनी छाया की चोटी कभी नहीं पकड़ी जा सकती। उसने वर्तमान पर ध्यान केन्द्रित किया और समस्या का समाधान खोज लिया। जिस अरण्य में राज्यमुक्त राजा को छोड़ा जाता, उसे सुन्दर बनाने की कल्पना की । एक योजना बनाई । देखते-देखते अरण्य एक रमणीय बगीचे में बदल गया | बड़े-बड़े प्रासाद, राजपथ, विशाल जलाशय उसकी उपयोगिया बढ़ा रहे थे । भोजन और चिकित्सा की व्यवस्था, जो कुछ चाहिए, वह सब वहां उपलब्ध हो गया । वह अरण्य की विभीषिका क्रीड़ागृह की रमणीयता में बदल गई । राजा बहुत प्रसन्न था । उसके मन में अब कोई भय नहीं रहा । राज्यमुक्ति का समय आया । पुत्र को राज्यासीन बना स्वयं अरण्यवास के लिए चल पड़ा। वह अरण्यवास राजप्रसाद से भी अधिक सुखद और आकर्षक था । वहां रहने को बड़े-बड़े लोग ललचाने लगे | जो भयारण्य था, वह अभयारण्य में बदल गया ।
वर्तमान की जागरूकता
मनुष्य के सामने कितने भयारण्य होते है । बहुत लोग उनमें अपना संकटमय जीवन जीने को विवश होते हैं । कितना अच्छा हो, कोई नयी कल्पना और नयी योजना बना उस भयारण्य को अभयारण्य बना दे । वर्तमान का मूल्यांकन होने पर ही इसकी संभावना की जा सकती है । वर्तमान की जागरूकता ही जीवन की सफलता का सूत्र है । उसी के आधार पर उज्ज्वल भविष्य के देवालय का शिलान्यास किया जा सकता है | केवल अतीत की गाथा गाने वाला धर्म चिरकाल तक आकर्षित नहीं कर सकता । केवल भविष्य के सुनहले सपने दिखाने वाला धर्म भी चिरजीवी नहीं रह सकता । वही धर्म स्थायी आकर्षण पैदा कर सकता है, जो वर्तमान की समस्या को सुलझाता है ।
जीवन है समन्वय
वर्तमान काल की एक अजस्र धारा है । जीवन भी एक शाश्वत प्रवाह है । वह जिया जा रहा है, समझा नहीं जा रहा है । शरीर अपना काम करता है । इन्द्रियां, प्राण, मन और चेतना- ये सब अपना-अपना काम करते हैं ।
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