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एक प्रश्न जो आज भी अनुत्तरित है ३७
से कहा- एक कथावाचक आया हुआ है । वह बहुत अच्छा कथा-वाचन करता है। आज तुम भी चलो मेरे साथ | पिता और पुत्र दोनों कथा में गए। कथावाचक ने ‘सब आत्माएं समान हैं' इस विषय पर मार्मिक प्रवचन दिया | पुत्र ने पहली बार प्रवचन सुना और उसका हृदय आंदोलित हो गया । पिता भोजन करने घर चला गया और पुत्र दुकान पर । घंटा भर बाद पिता दुकान पर आया । उसने देखा-अनाज का ढेर लगा है और एक गाय अनाज खा रही है। उसने दूर से ही लाठी को उछालना शुरू किया | पुत्र से कहा- अंधा है । देखता नहीं, गाय अनाज खा रही है ।
पुत्र बोला-'पिताजी ! अंधा नहीं हूं। आज ही आंख खुली है । सब आत्माएं समान हैं, इस सिद्धान्त ने मेरी दृष्टि को मांजा है फिर क्या होगायदि एक गाय ने थोड़ा-सा अनाज खा लिया ।' ।
पिता बोला तू बड़ा मूर्ख निकला | क्या धर्मस्थान की बात दुकान पर लाने की होती है ?
यह मूर्छा का एक निदर्शन है । एंगेल्स की स्वीकृति
- हम समता की बात मूर्छा के स्तर पर सुन रहे हैं और उसी स्तर पर कर रहे हैं । आंतरिक मूर्छा का चक्रव्यूह टूटे बिना समानता की बात कहां फलित होगी? हमारा आचरण और व्यवहार आंतरिक चेतना का प्रतिबिम्ब होता है। यदि हमारी चेतना में ही समता नहीं है तो व्यवहार समतापूर्ण कैसे होगा? समाज व्यवस्था समतापूर्ण कैसे होगी ? हमारे समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री और राजनीति के लोग समतामूलक समाज-व्यवस्था की चर्चा बहुत करते हैं । इस पर बहुत सोचा-विचारा और लिखा जा रहा है । मार्क्स से लेकर अब तक यह चक्र चल ही रहा है किन्तु उसका परिणाम बहुत आशाप्रद नहीं है | जीवन की संध्या में मार्क्स और एंगेल्स ने अध्यात्म की आवश्यकता का अनुभव किया था। "मृत्युकाल से कछ दिन पहले एंगेल्स ने अपने एक पत्र में स्वीकार किया था- मार्क्स और मैं अंशतः नवयुवकों में इस भावना के फैलाने के जिम्मेदार हैं कि आर्थिक पक्ष ही सब कछ है। एक तो विरोधियों के आक्रमणों के जवाब देने में हमें इस बात पर जरूरत से ज्यादा जोर डालना पड़ा, दूसरे, न हमें समय मिला न अवसर कि हम दूसरे पक्ष को भी पूरे तौर पर देख सकें।" (नई दिशा
क्या यह प्रश्न आज के चिन्तकों के लिए चिन्तनीय नहीं है ?
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