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२४ आमंत्रण आरोग्य को
के प्रति और अपने सिद्धांतों के प्रति । उनके माध्यम से किसी दूसरे व्यक्ति के प्रति । जो विचार और सिद्धान्त के प्रति समर्पित नहीं होता, उसकी विकासयात्रा अधूरी रह जाती है | आज राजनीतिक संस्थाओं में इसीलिए उलझनें बढ़ रही है कि दल के सदस्य सिद्धान्तों के प्रति समर्पित नहीं है । वे किसी उद्देश्य की पूर्ति या महत्त्वकांक्षा से दल के साथ जुड़ जाते हैं । उनकी पूर्ति न होने पर दलबदल के चक्र में फंस जाते हैं।
धर्म संप्रदायों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है । सिद्धान्त के आधार पर संप्रदाय को मानने वाले लोग कम होते हैं । अधिकांश अनुयायी इच्छा-पूर्ति या महत्त्वाकांक्षा के साथ चलते हैं। किसी देवता या मूर्ति की पूजा करने में विश्वास नहीं है किन्तु वैसा करने से धन मिलता है तो अमूर्तिपूजक मूर्तिपूजक होने में संकोच नहीं करता । यहां पूजा और अपूजा का प्रश्न नहीं है । मुख्य प्रश्न यह है कि प्रतिमा का अपूजक उसका पूजक बन रहा है, वह किसी सिद्धान्त से नहीं बन रहा किन्तु धन की आकांक्षा से बन रहा है । कोई हिन्दु मुसलमान बन रहा है वह किसी सिद्धान्त से नहीं बन रहा किन्तु किसी प्रतिक्रिया और प्रलोभन के साथ बन रहा है । यह सिद्धान्तहीनता किसी भी दल या संप्रदाय के प्रति समर्पण नहीं है, कोरी अवसरवादिता है । इस अवसरवादिता और समर्पण के बीच भेद-रेखा खींचने के बाद ही कोई व्यक्ति सिद्धान्त के प्रति समर्पित हो विकास की दिशा में आगे बढ़ सकता है ।
सोया है पराक्रम का देवता
आराम, आलस्य और अकर्मण्यता- इनका अर्थ भी लगभग एक जैसा है । आगे बढ़ने के लिए जिस पराक्रम की अपेक्षा है, वह बहुत कम लोगों में होता है | बहुत लोग अपना पैर उठाते ही नहीं । कुछ उठाते हैं तो बीच में ही रुक जाते हैं | तट के पार बहुत कम लोग जा पाते हैं । संशय, अनास्था
और कपट इसमें बहुत बाधक बनते हैं | सब जानते हैं कि कष्टों को झेले बिना उनकी अंतहीन श्रृंखला को कभी तोड़ा नहीं जा सकता । फिर भी हमें कष्ट झेलना पसंद नहीं है और वह इसीलिए नहीं है कि हमारा पराक्रम का देवता सोया हुआ है ! वर्तमान युग में जितना विज्ञान का विकास हुआ है उतना ही सुविधावाद का विकास हुआ है । सुविधावादी दृष्टिकोण ने पराक्रम की ज्योति पर एक ढक्कन रख दिया है । कठोर जीवन जीना और कष्ट सहना- ये
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