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६० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण की तरह वर्णावृत्ति तथा पदावृत्ति, दोनों को यमक माना है।' दण्डी भामह से इस अंश में प्रभावित हैं कि वे प्रहेलिका को यमक का ही भेद मानते हैं। भामह ने रामशर्मा का मत उद्धृत करते हुए कहा है कि गम्भीर धात्वर्थ वाले यमक को ही प्रहेलिका कहा गया है ।२ दण्डी ने इस मान्यता को स्वीकार कर पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा निर्दिष्ट प्रहेलिका के सोलह भेदों का लक्षणनिरूपण किया है। चौदह प्रकार की दुष्टप्रहेलिकाओं का भी सङ्केत 'काव्यादर्श' में प्राप्य है। गोमूत्रिका, अर्धभ्रम तथा सर्वतोभद्र जैसे—विभिन्न प्रकार के चित्रों में निबद्ध होने वाले काव्य (चित्र-काव्य) को दण्डी ने यमक अलङ्कार के ही व्यापक परिवेश में समाविष्ट माना है। स्पष्ट है कि नाना प्रकार के बन्धों में काव्य के निबन्धन की कल्पना का आरम्भ वर्गों के विभिन्न प्रकार के मोड़ के आधार पर ही हुआ था। पीछे चल कर चित्रों में वर्णविन्यास का अध्ययन शब्दालङ्कार से स्वतन्त्र विषय बन गया। नवीन-नवीन बन्धों की उद्धावना होने लगी और संस्कृत आचार्यों से लेकर हिन्दी के रीतिकालीन आचार्यों तक बन्धों की संख्या एक सौ अस्सी तक पहुंच गई। शब्द-चित्र के साथ अर्थ-चित्र की भी सत्ता स्वीकृत हुई। भामह ने यमक में केवल शब्दावृत्ति को ही वाञ्छनीय नहीं माना था, उसमें अर्थ की भिन्नता पर भी बल दिया था। यही अर्थ-चित्र की कल्पना का आधार बना। विभिन्न बन्धों में चित्र-काव्य की कल्पना का सूत्रपात सर्वप्रथम उक्त बन्धों की कल्पना करने वाले दण्डी ने ही किया, यद्यपि आदि आचार्य भरत की यमक-धारणा में ही उसका बीज निहित था। परवर्ती आचार्यों ने बन्ध-बद्ध काव्य को शब्दालङ्कार से पृथक् सिद्ध करने का प्रयास किया है। रीतिकालीन आचार्य मुरारिदान ने 'जसवन्त भूषण' में यह विचार व्यक्त किया है कि "प्राचीन कमलाकार, धनुषाकार इत्यादि रूप से काव्य लिखे जावें, उनको चित्र-काव्य कह कर शब्दालङ्कार के प्रभेद मानते हैं, सो भूल है; क्योंकि शब्द में रह कर काव्य को शोभा करे वह शब्दालङ्कार है । सो उक्त काव्यों की लेख क्रिया काव्य को कुछ भी शोभा नहीं करती। यह तो अष्टावधानादि साधनवत् कवि की क्रिया-चातुरी मात्र है। ऐसे ही एकाक्षर काव्य को जानना चाहिए।"3
१. तुलनीय-भरत ना० शा० १६,५६ तथा दण्डी, काव्याद०, ३, १ २. नानाधात्वर्थगम्भीरा यमकव्यपदेशिनी। प्रहेलिका साह्य दिता रामशर्माच्युतोत्तरे ।।
-भामह, काव्यालं० २, १६ ३. द्रष्टव्य-मुरारिदान, जसवन्त-भूषण, प्रस्तावना, पृ० ७६