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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ५६. अन्योन्योपमा के नाम से अभिहित हुआ और उपमा का एक प्रकार स्वीकृत हुआ। ससन्देह का अभिधान संशयोपमा किया गया तथा उपमा के ही भेदों में उसे समाविष्ट कर लिया गया। उपमारूपक रूपक अलङ्कार में अन्तभूत होकर उसका एक प्रकार बन गया तथा उत्प्रेक्षावयव अपनी स्वतन्त्र सत्ता खोकर उत्प्रेक्षा का भेद-मात्र मान लिया गया।' ___ दण्डी ने हेतु, सूक्ष्म तथा लेश अलङ्कारों का भी अस्तित्व स्वीकार किया है। भामह ने इनके अलङ्कारत्व का खण्डन किया था। आशीः को भी दण्डी ने अलङ्कार के रूप से मान्यता दी है। भामह ने इसके अलङ्कारत्व के सम्बन्ध में कुछ लोगों के मत का निर्देशमात्र किया था। भामह के अनुप्रास एवं यमक शब्दालङ्कारों में से केवल यमक का ही विवेचन 'काव्यादर्श' के अलङ्कार-प्रसङ्ग में हुआ है। अनुप्रास का विवेचन दण्डी ने माधुर्यगुण के स्वरूप-निरूपण के सन्दर्भ में किया है। इससे स्पष्ट है कि दण्डी ने अपने पूर्ववर्ती आचार्य भामह की विचार-सरणि का अन्धानुसरण नहीं किया है। उनमें चिन्तन की मौलिकता है। उनके अधिकांश अलङ्कारों का स्वरूप भामह के अलङ्कारों से अभिन्न होने पर भी, उनके भेदोपभेद की उद्भावना स्वतन्त्र रूप से की गयी है। कुछ अलङ्कारों का स्वरूप भी सर्वथा नवीन है। उन नवीन अलङ्कारों में से कुछ का मूल भरत की लक्षण-धारणा तथा गुण-धारणा में ढूढ़ा जा सकता है। भरत तथा भामह की काव्य-तत्त्व-विवेचना के प्रकाश में दण्डी की अलङ्कार-विषयक मान्यता का परीक्षण वाञ्छनीय है।
यमक
'काव्यादर्श' में यमक का सामान्य लक्षण 'काव्यालङ्कार' के यमक-लक्षण से किञ्चित् भिन्न है । दण्डी की यमक-धारणा भरत की धारणा के समान है । भामह ने श्र तिसम भिन्नार्थक शब्दों की आवृत्ति को यमक माना था।२ दण्डी ने भरत
१. अनन्वयससन्देहावुपमास्वेव दर्शितौ ।
उपमारूपकञ्चापि रूपकेष्वेव दर्शितम् ।। उत्प्रक्षाभेद एवासावुत्प्रक्षावयवोऽपि च । -दण्डी, काव्यादर्श २, ३५८-५९ और द्रष्टव्य, प्रतिवस्तूपमा
का लक्षण २, ४६ २. तुल्यश्र तीनां भिन्नानामभिधेयः परस्परम् ।
वर्णानां यः पुनर्वादो यमकं तन्निगद्यते ।।-भामह, काव्यालं० २, १७.