Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२सू.२० नारकाणां क्षुत्पिपासास्वरूपम् मिनन्तः 'वेयणं उदीरेंति' वेदनामुदीरयन्ति, कीदृशीं वेदनामुदीरयन्ति तत्राह'उज्जलं' इत्यादि, 'उज्जलं' उज्जवलाम्-दुःखरूपतया जाज्वल्यमानाम् मुखलेशेनापि वर्जितामित्यर्थः पुनः किं भूतां तत्राह-'पगाढां' प्रगाढाम् प्रकर्षण मर्मप्रदेश व्यपितया अतीव समवगाढाम् 'कर्कशाम् कर्कशामिव कर्कशाम्-कठोराम्, अयं भावः-यथा कर्कशः पाषाणसंघर्षः शरीरस्य खण्डानि त्रोटयन्ति एवमात्मप्रदेशान् त्रोटयन्तीव वेदना संजायते सा कर्कशा तां कर्कशाम् 'कडुयं' कटुकाम् कटुकामिव कटुकाम् , पित्तप्रकोप परिकलितवपुषो रोहिणी कटुकद्रव्यमिवोपभुज्यमानाम् अतिशयेनाप्रीतिजनिकामिति । 'फरुसं' एरुषां मनसोऽतीव रूक्षताजनिउदीरेंति' एक अनेक रूपों की विकुर्वणा करके ये आपस में एकदूसरे के रूपों के साथ उसे लड़ाकर शरीर में चोट पहुंचा कर वेदना उत्पन्न करते हैं वह वेदना 'उजलं' सुख के लेश से भी वर्जित होने के कारण अत्यन्त दुःख रूप से उन्हे जलाती रहती है 'पगाढो मर्म प्रदेशों में प्रवेश करके समस्त शरीर में व्यापक हो जाती है अतः वह प्रत्येक प्रदेश में समवगाढ होती है 'कक्कसं बहुत अधिक कठोर होती हैजैसे कर्कशपाषाणखण्ड का संघर्ष शरीर के अवयवों को तोड देता है-उसी तरह से वह वेदना भी आत्म प्रदेशों को तोड सी देती है, अतः उसे यहां कर्कश कहा गया है। 'कडुयं' कटुक वह वेदना इसलिये कही गई है कि वह पित्त प्रकोप वाले व्यक्ति को जैसे खाई गई रोहिणी -औषधि विशेष-अप्रीति जनक होती है उसी प्रकार से वह वेदना अप्रीति जनक होती है 'फरुसं' वह नारकों के मन में अतीव रूक्षता की अण्णमण्णस्स कार्य अभिहणमाणा अभिहणमाणा वेयण उदीरे'ति' अने४ ३थानी વિકુર્વણુ કરીને તેઓ પરસ્પરમાં એક બીજાના રૂપની સાથે તેને सावीन शरीरमा ४ पहाडीने वहन उत्पन्न ४२ छे. ते वहना 'उज्जलं' સુખનાલેશથી પણ રહિત હોવાના કારણે અત્યંત દુઃખ રૂપે તેને भागती रहे छ. 'पगाढां' भ प्रदेशमा प्रवेश शने समस्त शरीरमा व्यास थ लय छे. 'कक्कस' पधारे २ हाय छ. म श पत्थना १४ाना સંઘર્ષ શરીરના અવયવને તોડી નાખે છે, એજ પ્રમાણે તે વેદના પણ मात्मशान तो ना छ. तथा महियां तेन श स छ. 'कइयं' તે વેદનાને કટુ એ માટે કહી છે કે તે પિત્તપ્રકોપ વાળી વ્યક્તિને ખાવામાં આવેલ રોહિણી (વનસ્પતિ વિશેષ) અમીતિકારક હોય છે, એવી જ તે વેદના मप्रीति २४ हाय छे. 'फरुस' ते नाना भनमा सत्यत ३क्षता नहाय
જીવાભિગમસૂત્ર