Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

Previous | Next

Page 753
________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सू. ४७ औत्तर दिग्वर्त्यसुरकुमारनिरूपणम् ७४१ टीका- 'कहिणं भंते ! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं भवणा पन्नत्ता' कुत्र कस्मिन् स्थाने खलु भदन्त ! औत्तराणामसुरकुमारदेवानां भवनानि प्रज्ञप्तानि - कथितानीत भवनाधिकरणविषयकः प्रश्नः, उत्तरयति प्रज्ञापनातिदेशेन 'जहा' इत्यादि, 'जहा ठाणपदे जाव बली' एत्थ णं वइरोयर्णिदे वइरोयणराया पडिवसइ जाव विहरई' यथा प्रज्ञापनायां स्थानपदे - स्थानाख्ये द्वितीये पदे तथा तावद्वक्तव्यं यावद्वलिः, अत्र खलु वैरोचन्द्रो वैरोचनराजः प्रतिवसति यावद्विहरति ततऊर्ध्वमपि तावद्वक्तव्यं यावत् दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहरति इति पर्यन्तं स्थानपदोक्तपाठः संग्राहूयः । इस तरह से दक्षिण दिशा के असुरकुमारों का निरूपण करके अब सूत्रकार दक्षिण दिशा के असुरकुमारों का निरूपण करते हैं' कहिणं भंते! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणां भवणा पण्णत्ता' इत्यादि । टोकार्थ - इसमें गौतम ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है- 'कहिणं भंते! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणां भवणा पण्णत्ता' हे भदन्त ? उत्तरदिग्वर्ती असुरकुमारों के भवन कहां पर कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'जहा ठाणपदे जाव बली' हे गौतम । प्रज्ञापना के द्वितीय स्थान पद में बलि प्रकरण तक जैसा कथन किया गया है- वैसाही यहां पर भी कह लेना चाहिये। 'एत्थ णं वयरोयणिंदे वइशेयणराया परिवसइ जाव विहरह' यहां वैरोचनेन्द्र वैरोचनराजबलि रहता है यावत् दिव्य भोग भोगों को भोगता हुआ रहता है । अब बलि की परिषदा का वर्णन करते हैं 'बलिस्स णं भंते' इत्यादि 'बलिस्स णं भंते वइरोयणिंदस्स वइरोयणरत्रो આ રીતે દક્ષિણ દિશાના અસુરકુમાર દેવાનુ નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર उत्तर हिशाना असुरकुमार हेवानुं नि३पशु ४२ छे 'कहि णं' भते । उत्तरिल्ला णं असुरकुमाराणं भवणा पण्णत्ता' इत्याहि ટીકા”—આ સૂત્ર દ્વારા શ્રી ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એવું પૂછ્યુ छे 'कहिणं भवे ! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं भवणा पण्णत्ता' हे लगवन् ! ઉત્તર દિશામાં આવેલ અસુરકુમારોના ભવનેા કયાં કહેવામાં આવેલ છે ? या प्रश्नना उत्तरमा अनुश्री उडे छे ! 'गोयमा ! जहा ठाणपदे जाव बली' હે ગૌતમ ! પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના બીજા સ્થાન પટ્ટમાં ખલિ પ્રકરણ સુધી જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે અહીયા પણ સમજી લેવુ જોઇએ. 'एत्थ णं वइरोयणिंदे वइरोयणराया परिवसइ जाव विहरइ' महीया वैशेय નેન્દ્ર વૈરાચન રાજ મલિ રહે છે. યાવત દિવ્યભાગેને ભાગવતા થકા રહે છે. આ કથન સુધિનું પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના સ્થાનપદનું કથન ગ્રહણ કરવું જોઇએ, જીવાભિગમસૂત્ર

Loading...

Page Navigation
1 ... 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900 901 902 903 904 905 906 907 908 909 910 911 912 913 914 915 916 917 918