Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 854
________________ ८४२ जीवाभिगमसूत्रे च्छाया, हरितो हरितच्छायः, शीत: शीतच्छाय:, एतान्यपि विशेषणानि ज्ञातव्यानिः केवलं शीतः शीतच्छाय इत्यत्र छाया शब्दः आतपप्रतिपक्षवस्तुवाची द्रष्टव्यः । 'घणकडियड च्छाए' घनकटितटच्छाय:, इह शरीरस्य मध्यभागे कटि: ततोऽन्यस्यापि मध्यभागः कटिरिव कटिरित्युच्यते, कटिस्तटमिव कटितटम्, घना-अन्यान्यशाखाप्रशाखानुप्रवेशतो निविडा कटितटे-मध्यभागे छाया यस्य स धनकटितटच्छाय:-मध्यभागे निविडतरच्छाय इत्यर्थः अतएव 'रम्मे' रम्यो रमणीयः, 'महामेह निकुरंबभूए' महान्-जलभारावनतः प्रवृट्कालभावी मेघनिकु. रम्बो-मेघसमूहस्तं भूतो गुणैः प्राप्त इति महामेघनिकुरम्बभूतः, महामेघवृन्दोपम है। इस प्रतिपादन में भी समझ लेना चाहिये 'शीतः शीतच्छायः' यहां पर छाया शब्द आकार का कथक नही है। किन्तु आतप की प्रतिपक्षी भूत वस्तु का वाचक है। अत वह वनषण्ड शीत इसलिये है कि वहां पर की छाया शीत है। 'घणकडियच्छाए' कटि शब्द का प्रयोग शरीर के मध्यभाग में होता है फिर भी अन्य का भी मध्यभाग कटी शब्द से गृहीत हो जाता है कटिको यहां तर जैसा कहा है। तात्पर्य यह है कि इस वनषण्ड के मध्यभाग में जो वृक्षराजि है, उसकी शाखाएँ और प्रशाखाएँ आपस में एक दूसरे वृक्षों की शाखाओं और प्रशाखाओं के मध्य में प्रविष्ट हो गई है अतः यहां मध्यभाग में घनी छाया रहती है इसी कारण यह वनखण्ड में बहुत अधिक रमणीय है 'महामेहनिकुरंबभूए' महमेहनिकुरंबभूतः' देखनेवालों को यह वनषण्ड ऐसा प्रतीत होता है कि मानो यह पानी के भार से अवनत हुआ महामेघों का समूह ही है अब इस वनखण्ड के पादपो વર્ણવાળું થાય છે અને એથી જ તેની છાયા આકાર નીલ હોય છે. એ પ્રમાણે આ प्रतिपादनमा ५ सम सेवू 'शीतः शीतच्छायः' माडीयां छाया २४ मारना અર્થ માં નથી પણ તડકાના પ્રતિપક્ષ રૂપ જે છાયા છે, તે અર્થને વાચક છે. તેથી એ વનખંડ શીત એ માટે છે કે ત્યાની છાયા શીત હોય છે. 'घणकडियच्छाए' टि शो अर्थ शरीरना मध्यमा भाटे अड] ४२राय છે. તે પણ અન્યને મધ્ય ભાગ પણ કટિ શબ્દથી ગ્રહણ થઈ જાય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે આ વનખંડના મધ્યભાગમાં જે વૃક્ષોની પંકિત છે, તેની શાખાઓ અને પ્રશાખાઓ એક બીજા વૃક્ષની શાખાઓ અને પ્રશાખાઓના મધ્યભાગમાં પ્રવેશેલી રહે છે, તેથી આ વનખંડ ઘણું જ સુંદર લાગે छ. 'महामेहनिकुरं बभूए-महामेघनिकुरंबभूत:' तथा नारायाने वनमंड मेनु જણાય છે કે જાણે પાણીના ભારથી નમી ગયેલા મહા મેઘાને સમૂહ જ છે. જીવાભિગમસૂત્ર

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