Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३सू.५३ वनषण्डादिकवर्णनम्
८७७ नाम् उपरि क्षिप्यमाणानाम् 'विकिरिज्जमाणाण वा' इतस्ततो विप्रकीर्यमाणा. नाम् 'परिभुज्जमानानाम्-परिभोगायोपभुज्यमानानाम् , 'भंडाओ वा भंडं साहरिज्जमाणाणं' भाण्डात्-एकस्माद् भाण्डात् पात्रात् भाण्डं-भाजनान्तरं संहियमाणानाम् कोष्ठादि पुटानाम् 'ओराला' उदाराः स्फाराः, ते चामनोज्ञा अपिस्युरित्यत आह-'मणुण्णा' मनोज्ञाः-मनोऽनुकूला:, तच्च मनोज्ञत्वं कुतस्तत्राह'घाण' इत्यादि, 'घाणमणोणिचुत्तिकरा' घ्राणमनो निर्वृत्तिकराः एवं भूतास्ते 'सव्वो समंता' सर्वतः सर्वासु दिक्षु सामस्त्येन 'गंधा अभिणिस्सवंति' गन्धा अभिनिःस्रवन्ति-जिघ्रतामभिमुखं निःसरन्ति । श्रीगौतमः पृच्छति-भवे एयारूवे सिया' भवेद् मणीनां तृणानां च कोष्ठपुटादि सदृशो गन्ध इति; भगवानाहमाणाणवा' ये उपर उडाये जारहे हो, 'वकिरिज्जमाणाणवा'-इधर उधर ये विखेरे जा रहे हो 'परिभुज्जमाणाणवा' अपने अपने काम में इनका उपभोक्ता पुरुषों द्वारा उपयोग किया जा रहा है । 'भंडाओ वा भंडं साहरिज्जमाणाण वा' एकवर्तन से दूसरे वर्तन में लिये जा रहे हों उस समय इनकी 'गंधा' वास सुगन्ध 'ओराला' बहुत अधिक विस्तृत अवस्था में निकलती है एवं वह 'मणुण्णा' मनोऽनुकूल होती है क्यों कि यह गन्ध 'घाणमणणिव्युत्तिकरा' प्राण इन्द्रियको एवं मनको एक प्रकार की शान्ति देनेवाली होती है इस प्रकार का यह सुगन्ध 'सव्वओ समंता अभिणिस्सवंति' अनुकूल वायु के चलने पर इनकी वास सव ओर से चारों दिशाओं में अच्छी तरह से फैल जाती है 'भवे. एयारूवे सिया' तो क्या हे भदन्त ! इन तृणों की ओर मणियों की सुगन्ध इन कोष्ठपुटादिकों की सुगन्ध जैसी ही होती है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'गोयमा ! णो इण? सम' हे गौतम ! यह अर्थ 'विकिरिज्जमाणाणवा' आमतेम से विस२पामा भावी हाय 'परिभुज्जमाणाणवा' घातपाताना अभमां पता ५३षे द्वारा उपयोग रात हाय 'भंडाओ वा भडं साहरिज्जमाणाणवा' मे पास मांथा भी वासभा सेवामां माता हाय ते ५मते तन -पास सुगध 'ओराला' शी वधारे विपुल प्रभाभा नाणे छ तथा मे 'मणुण्णा' मनानु हाय छे. भोग 'घाणमण णिव्वुइकरा' धाणेन्द्रिय अने भनने शilत मावाणी हाय छे. या प्रा२नी भा सुगंध 'सव्वओ समंता अभिणिस्सवणति' अनुण पवनन। पापाथी थी त२३थी यारे शासमा सारी रीते साय छे. 'भवेएयारूवे सिया' है હે ભગવન તે શું આ તૃણો અને મણિની સુગંધ આ કષ્ટપુટ વિગેરેની સુગંધ જેવી હેય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે
જીવાભિગમસૂત્ર