Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 862
________________ जीवाभिगमसूत्रे ८५० मण्डपकै क्षामण्डपकैरुपशोभिता इति नानाविध गुच्छ गुल्म मण्डपकशोभिताः तथा 'विचित्तसुह के बहुला' विचित्र शुभकेतु बहुला, विचित्रैः - अनेक प्रकारकैः शुभैः - मङ्गलभूतैः केतुभिर्ध्वजैर्व हुलाः- ध्याप्ता ये ते तथा - 'वावी क्खरिणी दीहिया सुनिवेसियरम्मजालघरगा' वापी पुष्करिणी दीर्घिकासुनि वेशितरम्यजालगृहकाः वाप्यश्चतुरस्राकारास्ता एव वृत्ताः पुष्करिण्यः, यदि वा पुष्कराणि विद्यन्ते यासु ताः पुष्करिण्यः दीर्घिका ऋजुसरिण्यः, वापीषु पुष्करिणीषु दीर्घिकासु सुष्ठुनिवेशितानि रम्याणि जालगृहाणि येषु ते तथा, तथा-पिडिय नीहारिमं' पिण्डिता सती निर्धारिमा दूरे निर्गच्छन्ती पिण्डितन्हिरिमा तां सुगन्धि सुष्ठुगन्धिकाम् 'सुह सुरहिमणोहरं' शुभसुरभिभ्यो गन्धान्तरेभ्यः सकाशान्मनोहरा शुभसुरभिमनोहरा तां च तादृशीम् 'महया' महतीम् ' गन्धद्धणिं' गन्धद्धाणिं यावद्भिर्गन्धपुद्गलैः गन्धविषये घ्राणिरूपजायते तावती गन्धपुलसंहति रूपचाराद् गन्धाणिरित्युच्यते ताम् 'निच्चं ' निरन्तरम् 'मुंचमाणा' मुञ्चन्तः, तथा = 'सुह रहते है । इनके ऊपर अनेक प्रकार की सुंदर ध्यजाएं फहराती है 'बाविपुक्खरिणी दीहिया सुनिवेसियरम्मजालघरगा' चतुरस्रआकारवाली वापिकाओं में, वृत्त आकारवाली पुष्करिणियों में अथवा पुष्करों से-कमलों से युक्त पुष्कविणियों में। ऋजू सारिणीवाली दीर्घिकाओं में जिन्हें सिञ्चित करने के लिए अच्छी तरह से सुंदर जालगृह लगे हुए है ये वृक्ष ऐसी अन्य गन्धों से भी विशिष्ट मनोहर गंधको निरन्तर छोड़ते रहते है कि जिससे गंध के विषय में तृप्ति हो जाती है वह गन्ध उनसे थोडे २ रूप में नहीं निकलती है किन्तु पिण्डित होकर निकलती है और दूर दूर तक फैल जाती है जितने गंध पुद्गलों से के विषय में प्राणि- घ्राणेन्द्रिय को तृप्ति - हो जावे उतनी गंध पुद्गल संहतिका नाम गन्धत्राणि है, 'सुहसेउ के बहुला' इनके जो आलवाल रहे छे, तेना उपर अनेड प्रहारनी सुंदर धन्नो इरडती रहे 'वावि पुक्खरिणी दीहिया सुनिवेसियरम्मजालघरगा' थे। भूना भारवाजी वावोभां वृत्त આકારવાળી પુષ્કરણિયામાં અથવા પુષ્કર-કમળાથી યુકત પુષ્કરિણિયામાં ઋજુ સારિણીવાળી દૌધિકાઓમાં જેને સંગ્રહ કરવા સારી રીતે સુંદર જાળગૃહો લાગેલા છે, એવા એ વૃક્ષેા એવા પ્રકારના અન્ય ગન્ધથી પણ વિશેષ પ્રકાર થી મનેાહર એવા ગંધને કાયમ છેડયા કરે છે, કે જેથી ગંધ વિષયક મનને તૃપ્તિ મળી જાય છે. એ ગંધ એમાંથી ઘેાડા ઘેાડા પ્રમાણમાં નીકળતા નથી. પરંતુ પિંડ પણાથી અર્થાત્ પિંડરૂપે નીકળતા રહે છે, અને ઘણે દૂર સુધી ફેલાઈ જાય છે. જેટલા ગંધ પુદ્ગલેથી ગંધના સંબંધમાં ઘ્રાણેન્દ્રિય તૃસ જીવાભિગમસૂત્ર

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