Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३सू.४५ देवस्वरूपवर्णनम् जाव विहरइ' एवं यथा स्थानपदे प्रज्ञापनाया द्वितीयपदे कथितं तथाऽत्रापि ज्ञातव्यं यावच्चमरस्तत्र असुरकुमारेन्द्रः असुरकुमारराजः परिवसति यावद् विहरतीति । अत्र-'गोयमा ! जंबूद्दोवे दीवे' इत्यारभ्य 'दिव्याई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ' इति पर्यन्तं दाक्षिणत्यासुरकुमारवक्तव्यता सर्वाऽपि-प्रज्ञापनायाः स्थानपदोक्ता ग्राह्येति ।।सू० ४५॥
पूर्व चमरसूत्रे 'तिण्हं परिसाणं' इत्युक्तम्, ततश्चमरस्य परिषद्विशेषपरिज्ञानाय सूत्रमाह-'चमरस्स णं भंते !' इत्यादि,
म्लम्-चमरस्सणं भंते! असुरिंदस्स असुररन्नो कइ परिसाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा! तओ परिसाओ पन्नत्ताओ तं जहा-समिया चंडा जाया, अभितरिया समिया मज्झिमिया चंडा बाहिरिया च जाया। चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स यह पृच्छा शब्द से ग्रहण किया जाता है ? इस प्रश्नके उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'एवं जहा ठाणपदे जाव चमरे तत्थ असुरकुमारि देवा असुरकुमार. राया परिवसइ 'जाव विहरइ' हे गौतम इस प्रकार जैसा प्रज्ञापना के स्थानपद में कहा गया है वैसा ही यहां पर भी जान लेना चाहिये यहां तक कि वहां चमर असुरेन्द्र असुरकुमार राजा रहता है। इसका पूरा वर्णन यहां समझना चाहिये यहां तक कि 'गोयमा 'जंबूद्दीवे दीवे यहां से लेकर वह चमर असुरेन्द्र असुरकुमार राजा 'दिवाइं भोगभोगाइ' भुजमाणे विहरई' दिव्य भाग भोगों का अनुभव करता हुआ रहता है यहां तक दाक्षिणात्य असुरकुमारों का सबवर्णन प्रज्ञापना के स्थान पदोक्त यहां भी समझ लेना चाहिये ।।सूत्र-४५॥ उपस्थित २१मा मावस छे. या प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४ छ है एवं जहा ठाणपदे जाव चमरे तत्थ असुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसइ जाव विहरइ' હે ગૌતમ આ રીતે જે પ્રમાણે પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના સ્થાનપદમાં કહેવામાં આવેલ છે તેજ પ્રમાણેનું કથન અહીંયાં પણ સમજી લેવું તે કથન અમર અસુરેન્દ્ર અસુરકુમાર રાજા હોય છે. આટલા સુધીનું પુરે પુરૂ અહિયાં સમજી લેવું अर्यात प्रभुश्री गौतमत्वामीन उत्त२ मा५तi ‘गोयमा ! जंबुदीचे दीवे' से
v४ प्रयोगथी मारलीन ते यम२ मसुरेन्द्र असु२४मा२ २०n 'दिव्वाई भोग भोगाइं मुंजमाणे विहरइ' ६व्या लागान। मनुल ४२ता था त्या हे છે. આટલા સુધી દક્ષિણાત્ય અસુરકુમાર દેવેનું પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના સ્થાનપદમાં કહેલ તમામ વર્ણન અહિંયાં પણ સમજી લેવું . ૪૫
જીવાભિગમસૂત્ર