Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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जीवाभिगमसूत्रे कृतशिरस्कः चौरशोधाधिकारी । 'माडंबियाइ वा' माण्डविक इति, छिन्नभिन्नजनाश्रयाधिपतिः 'कोड बियाइ वा' कौ टुम्बिक इति वा, कौटुम्बिका-कतिपयकुटुम्बप्रभुः 'इन्भाइ वा' इभ्य इति वा' इभो हस्ती तत्पमाणं द्रव्यमहतीति इभ्यो धनिकः 'सेहीइ वा' श्रेष्ठीति वा-लक्षम्याध्यासितसौवर्णपट्टालङ्कृतशिराः नगरप्रधानव्यवहर्नेति भाव : 'सेणावईति वा' सेनापतिरिति वा, सेनानायकः, 'सस्थवाहाइ वा' सार्थवाह इति वा, यो हि गणिमादि क्रयाणकं गृहीत्वा देशान्तरं गच्छत् सहचारिणां मार्गे सहायको भवति स सार्थवाहा, भगवानाह-'णो इणद्वे समढे' नायमर्थः समर्थः, 'ववगयइडी सक्काराणं ते मणुयगणा-पण्णता समणाउसो !' व्यपगतऋद्धिसत्काराः खलु व्यपगताऋद्धिविभवैश्वर्य सत्कारश्च येभ्यस्तै - यह युवराज है यह इश्वर-भोगिक आदि है यह तलबर हैं-संतुष्ट हुए नरपति द्वारा दिया गया जिसके मस्तक पर सौवर्ण का पट्ट अलङ्कृत हो रहा है ऐसा थानेदार जो नगरादि में चोरों की छानवीन किया करता है उन्हें दण्डित करता है यह मांडबिक छिन्न भिन्न वसति का स्वामी है, यह कौटुम्बिक है कतिपय कुटुम्ब का स्वामी है, यह इभ्य-हस्ति प्रमाण द्रव्य का मालिक है, यह श्रेष्ठि-लक्षाधिपति है यह सेनापति है, यह सार्थवाह-गणिमादिक ऋयाणक को बेचने के लिये देशान्तर जाते हुए जो अपने सहचारियों को मार्ग में सहायक होता है ऐसा वह संघाधिपति हैं, 'क्या ऐस व्यवहार होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'णो इणद्वे सम?' हे गौतम ! वहां पर ऐसा व्यवहार नहीं होता है क्योंकि-'ववगयइदी सकारा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् ! ये सब एकोरुक द्वीप वासी मनुष्य ऋद्धि, આપેલ સોનાના પટ્ટ જેના માથા પર શેભે છે, તેવા થાણદાર (મામલતદાર) કે જે નગર વિગેરેમાં ચેરની શોધ ખેાળ કરે છે. તેમને દંડ કરે છે. તેને તલવર કહે છે. આ માડંબિક છિન્ન ભિન્ન વસતિને સ્વામી છે. આ ઇભ્ય હાથીના જેટલા પ્રમાણ વાળા દ્રવ્યને માલીક છે, આ શેઠ અર્થાત લક્ષાધિપતિ છે. આ સેનાપતિ છે. આ સાર્થવાહ છે, ગણિમ ધરિમ, વિગેરે વેચવા ચોગ્ય પદાર્થને વેચવા દેશાન્તરમાં જનારાઓને તેમની સાથે જેઓ સહચારી-સાથે રહેવાવાળાઓને માર્ગમાં સહાયક હોય છે. એ તે સંઘને અધિપતિ છે. શું? એવો વ્યવહાર થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतमयाभार ४ छे , 'णो इणद्वे समट्टे' गौतम ! त्यो मा येव। व्यवहार था नथी. भ. 'ववगय इड्ढी सक्कारा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो' हे श्रमण सायुज्मन् मा ३७ दीपमा हेवापामा भनुष्ये।
જીવાભિગમસૂત્ર