Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक करता है । जिस समय इस भव का आयुष्य करता है, उस समय परभव का आयुष्य नहीं करता और जिस समय परभव का आयुष्य करता है, उस समय इस भव का आयुष्य नहीं करता । तथा इस भव का आयुष्य करने से परभव का आयुष्य और परभव का आयुष्य करने से इस भव का आयुष्य नहीं करता । इस प्रकार एक जीव एक समय में एक आयुष्य करता है-इस भव का आयुष्य अथवा परभव का आयुष्य । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। सूत्र - ९८
उस काल और उस समय (भगवान महावीर के शासनकाल) में पापित्यीय कालास्यवेषिपुत्र नामक अनगार जहाँ (भगवान महावीर के) स्थविर भगवान बिराजमान थे, वहाँ गए । स्थविर भगवंतों से उन्होंने कहा- हे स्थविरो! आप सामयिक को नहीं जानते, सामयिक के अर्थ को नहीं जानते, आप प्रत्याख्यान को नहीं जानते और प्रत्याख्यान के अर्थ को नहीं जानते; आप संयम को नहीं जानते और संयम के अर्थ को नहीं जानते; आप संवर को नहीं जानते, संवर के अर्थ को नहीं जानते; हे स्थविरो! आप विवेक को नहीं जानते और विवेक के अर्थ को नहीं जानते हैं, तथा आप व्युत्सर्ग को नहीं जानते और न व्युत्सर्ग के अर्थ को जानते हैं । तब उन स्थविर भगवंतों ने कालास्यवेषिपुत्र अनगार से इस प्रकार कहा- हे आर्य ! हम सामायिक को जानते हैं, सामायिक के अर्थ को भी जानते हैं, यावत् हम व्युत्सर्ग को जानते हैं और व्युत्सर्ग के अर्थ को भी जानते हैं।
उसके पश्चात् कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने उन स्थविर भगवंतों से इस प्रकार कहा-हे आर्यो ! यदि आप सामयिक को (जानते हैं), यावत् व्युत्सर्ग को एवं व्युतसर्ग के अर्थ को जानते हैं, तो बतलाइए कि सामायिक क्या है
और सामायिक का अर्थ क्या है ? यावत्...व्युत्सर्ग क्या है और व्युत्सर्ग का अर्थ क्या है ? तब उन स्थविर भगवंतों ने इस प्रकार कहा कि-हे आर्य ! हमारी आत्मा सामायिक है, हमारी आत्मा सामायिक का अर्थ है; यावत् हमारी आत्मा व्युत्सर्ग है, हमारी आत्मा ही व्युत्सर्ग का अर्थ है । इस पर कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने उन स्थविर भगवंतों से इस प्रकार पूछा-हे आर्यो ! यदि आत्मा ही सामायिक है, यावत् आत्मा ही व्युत्सर्ग का अर्थ है, तो आप क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करके क्रोधादि की गर्हा-निन्दा क्यों करते हैं ? हे कालास्यवेषिपुत्र ! हम संयम के लिए क्रोध आदि की गर्दा करते हैं।
तो हे भगवन् ! क्या गर्दा संयम है या अगर्दा संयम है ? हे कालास्यवेषिपुत्र ! गर्दा (पापों की निन्दा) संयम है, अगर्दा संयम नहीं है । गर्दा सब दोषों को दूर करती है-आत्मा समस्त मिथ्यात्व को जानकर गरे द्वारा दोष-निवारण करता है । इस प्रकार हमारी आत्मा संयम में पुष्ट होती है, और इसी प्रकार हमारी आत्मा संयम में उपस्थित होती है।
वह कालास्यवेषिपुत्र अनगार बोध को प्राप्त हुए और उन्होंने स्थविर भगवंतों को, वन्दना-नमस्कार करके कहा- हे भगवन् ! इन (पूर्वोक्त) पदों को न जानने से, पहले सूने हुए न होने से, बोध न होने से, अभिगम न होने से, दृष्ट न होने से, विचारित न होने से, सूने हुए न होने से, विशेषरूप से न जानने से, कहे हुए न होने से, अनिर्णीत होने से, उद् धृत न होने से, और ये पद अवधारण किये हुए न होने से इस अर्थ में श्रद्धा नहीं की थी, प्रतीति नहीं की थी, रुचि नहीं की थी; किन्तु भगवन् ! अब इन (पदों) को जान लेने से, सून लेने से, बोध होने से, अभिगम होने से, दृष्ट होने से, चिन्तित होने से, श्रुत होने से, विशेष जान लेने से, (आपके द्वारा) कथित होने से, निर्णीत होने से, उद्धत होने से और इन पदों का अवधारण करने से इस अर्थ पर मैं श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ, रुचि करता हूँ, हे भगवन् ! आप जो यह कहते हैं, वह यथार्थ है, वह इसी प्रकार है । तब उन स्थविर भगवंतों ने कालास्यवेषिपुत्र अनगार से कहा-हे आर्य! हम जैसा कहते हैं उस पर वैसी ही श्रद्धा करो, आर्य ! उस पर प्रतीति करो, आर्य ! उसमें रुचि रखो।
तत्पश्चात् कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने उन स्थविर भगवंतों को वन्दना की, नमस्कार किया, और तब वह इस प्रकार बोले- हे भगवन् ! पहले मैंने (भगवान पार्श्वनाथ का) चातुर्यामधर्म स्वीकार किया है, अब मैं आपके पास प्रतिक्रमणसहित पंचमहाव्रतरूप धर्म स्वीकार करके विचरण करना चाहता हूँ । (स्थविर-) हे देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसे करो । परन्तु (इस शुभकार्य में) विलम्ब न करो । तदनन्तर कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने स्थविर भगवंतों की वन्दना की, नमस्कार किया, और फिर चातुर्याम धर्म के स्थान पर प्रतिक्रमणसहित पंचमहाव्रत वाला धर्म स्वीकार
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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