Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक तप का फल व्यवदान है तो देव देवलोकों में किस कारण से उत्पन्न होते हैं ? कालिकपुत्र नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से यों कहा- आर्यो ! पूर्वतप के कारण देव देवलोकों में उत्पन्न होते हैं । मेहिल नाम के स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा-आर्यो ! पूर्व-संयम के कारण देव देवलोकों में उत्पन्न होते हैं।
फिर उनमें से आनन्दरक्षित नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा-आर्यो ! कर्म शेष रहने के कारण देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं । उनमें से काश्यप नामक स्थविरने उन श्रमणोपासकों से कहा-आर्यो ! संगिता (आसक्त) के कारण देव देवलोकों में उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार हे आर्यो ! पूर्व (रागभावयुक्त) तप से, पूर्व (सराग) संयम से, कर्मों के रहने से, तथा संगिता (द्रव्यासक्ति) से, देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं । यह बात सत्य है। इसलिए कही है, हमने अपना आत्मभाव बताने की दृष्टि से नहीं कही है।
तत्पश्चात वे श्रमणोपासक, स्थविर भगवंतों द्वारा कहे हए इन और ऐसे उत्तरों को सनकर बडे हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए और स्थविर भगवंतों को वन्दना नमस्कार करके अन्य प्रश्न भी पूछते हैं, प्रश्न पूछकर फिर स्थविर भगवंतों द्वारा दिये गए उत्तरों को ग्रहण करते हैं। तत्पश्चात् वे वहाँ से उठते हैं और तीन बार वन्दना-नमस्कार करते हैं। जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में वापस लौट गए। इधर वे स्थविर भगवंत भी किसी एक दिन तुंगिका नगरी के उस पुष्पवतिक चैत्य से नीकले और बाहर जनपदों में विचरण करने लगे। सूत्र-१३४
उस काल, उस समय में राजगृह नामक नगर था । वहाँ (श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे । परीषद् वन्दना करने गई यावत् धर्मोपदेश सूनकर) परीषद् वापस लौट गई । उस काल, उस समय में श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार थे । यावत्...वे विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में संक्षिप्त करके रखते थे। वे निरन्तर छठ्ठ-छठ के तपश्चरण से तथा संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए यावत् विचरते थे
इसके पश्चात् छठ्ठ के पारणे के दिन भगवान गौतमस्वामी ने प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया; द्वीतिय प्रहर में ध्यान ध्याया और तृतीय प्रहर में शारीरिक शीघ्रता-रहित, मानसिक चपलतारहित, आकुलता से रहित होकर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना की; फिर पात्रों और वस्त्रों की प्रतिलेखना की; तदनन्तर पात्रों का प्रमार्जन किया और फिर उन पात्रों को लेकर जहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आए । भगवान को वन्दन-नमस्कार किया और निवेदन किया-भगवन् ! आज मेरे छठु तप के पारणे का दिन है । अतः आप से आज्ञा प्राप्त होने पर मैं राजगृह नगर में उच्च, नीच और मध्यम कुलों के गृहसमुदाय में भिक्षाचर्या की विधि के अनुसार, भिक्षाटन करना चाहता हूँ । हे देवानुप्रिय! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसे करो; किन्तु विलम्ब मत करो।
भगवान की आज्ञा प्राप्त हो जाने के बाद भगवान गौतमस्वामी श्रमण भगवान महावीर के पास से तथा गुणशील चैत्य से नीकले । फिर वे त्वरा, चपलता और आकुलता से रहित होकर युगान्तर प्रमाण दूर तक की भूमि का अवलोकन करत हुए, अपनी दृष्टि से आगे-आगे के गमन मार्ग का शोधन करते हुए जहाँ राजगृह नगर था, वहाँ आए। ऊंच, नीच और मध्यम कुलों के गृह-समुदाय में विधिपूर्वक भिक्षाचरी के लिए पर्यटन करने लगे।
उस समय राजगृह नगर में भिक्षाटन करते हुए भगवान गौतम ने बहुत-से लोगों के मुख से इस प्रकार के उद् गार सूने-हे देवानुप्रिय ! तुंगिका नगरी के बाहर पुष्पवतिक नामक उद्यान में भगवान पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य स्थविर भगवंत पधारे थे, उनसे वहाँ के श्रमणोपासकों ने प्रश्न पूछे थे कि भगवन् ! संयम का क्या फल है, भगवन् ! तप का क्या फल है ? तब उन स्थविर भगवंतों ने उन श्रमणोपासकों से कहा था-आर्यो ! संयम का फल संवर है, और तप का फल कर्मों का क्षय है । यावत्-हे आर्यो ! पूर्वतप से, पूर्वसंयम से, कर्म शेष रहने से और संगिता (आसक्ति) से देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं । यह बात सत्य है, इसलिए हमने कही है, हमने अपने आत्मभाव वश यह बात नहीं कही है। तो मैं यह बात कैसे मान लूँ?
इसके पश्चात् श्रमण भगवान गौतम ने इस प्रकार की बात लोगों के मुख से सूनी तो उन्हें श्रद्धा उत्पन्न हुई, और यावत् उनके मन में कुतूहल भी जागा । अतः भिक्षाविधिपूर्वक आवश्यकतानुसार भिक्षा लेकर वे राजगृहनगर से
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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