Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/शतकशतक /उद्देशक/ सूत्रांक पहुँचा । श्रमण भगवान महावीर ने कालोदयी से पूछा- हे कालोदायी ! क्या वास्तव में, किसी समय एक जगह सभी साथ आये हुए और एकत्र सुखपूर्वक बैठे हुए तुम सब में पंचास्तिकाय के सम्बन्ध में विचार हुआ था कि यावत् यह बात कैसे मानी जाए ? क्या यह बात यथार्थ है? हाँ, यथार्थ है।
(भगवान-) हे कालोदायी ! पंचास्तिकायसम्बन्धी यह बात सत्य है । मैं धर्मास्तिकाय से पुद्गलास्तिकाय पर्यन्त पंच अस्तिकाय की प्ररूपणा करता हूँ । उनसे चार अस्तिकायों को मैं अजीवकाय बतलाता हूँ । यावत् पूर्व कथितानुसार एक पुद्गलास्तिकाय को मैं रूपीकाय बतलाता हूँ। तब कालोदायी ने श्रमण भगवान महावीर से पूछाभगवन् ! क्या धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, इन अरूपी अजीवकायों पर कोई बैठने, सोने, खड़े रहने, नीचे बैठने यावत् करवट बदलने, आदि क्रियाएं करने में समर्थ है ? हे कालोदायी ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। एक पुदगलास्तिकाय ही रूपी अजीवकाय है, जिस पर कोई भी बैठने, सोने या यावत करवट बदलने आदि क्रियाएं करने में समर्थ है।
भगवन् ! जीवों को पापफलविपाक से संयुक्त करने वाले पापकर्म, क्या इस रूपीकाय और अजीवकाय को लगते हैं ? क्या इस रूपीकाय और अजीवकायरूप पुद्गलास्तिकाय में पापकर्म लगते हैं ? कालोदायि! यह अर्थ समर्थ नहीं है । (भगवन् !) क्या इस अरूपी जीवास्तिकाय में जीवों को पापफलविपाक से युक्त पापकर्म लगते हैं ? हाँ, लगते हैं।
(समाधान पाकर) कालोदायी बोधि को प्राप्त हुआ। फिर उसने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार करके उसने कहा- भगवन् ! मैं आपसे धर्म-श्रवण करना चाहता हूँ। भगवान ने उसे धर्म-श्रवण कराया। फिर जैसे स्कन्दक ने भगवान से प्रव्रज्या अंगीकार की थी वैसे ही कालोदायी भगवान के पास प्रव्रजित हुआ । उसी प्रकार उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया...यावत् कालोदायी अनगार विचरण करने लगे। सूत्र-३७८
किसी समय श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर के गुणशीलक चैत्य से नीकलकर बाहर जनपदों में विहार करते हुए विचरण करने लगे। उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था । गुणशीलक नामक चैत्य था । किसी समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी पुनः वहाँ पधारे यावत् उनका समवसरण लगा । यावत् परीषद् धर्मोपदेश सूनकर लौट गई।
तदनन्तर अन्य किसी समय कालोदायी अनगार, जहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ उनके पास आये और श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-भगवन् ! क्या जीवों को पापफलविपाक से संयुक्त पाप-कर्म लगते हैं? हाँ, लगते हैं। भगवन् ! जीवों को पापफलविपाकसंयुक्त पापकर्म कैसे लगते हैं ? कालोदायी ! जैसे कोई पुरुष सुन्दर स्थाली में पकाने से शुद्ध पका हुआ, अठारह प्रकार के दाल, शाक आदि व्यंजनों से युक्त विषमिश्रित भोजन का सेवन करता है, वह भोजन उसे आपात में अच्छा लगता है, किन्तु उसके पश्चात् वह भोजन परिणमन होता-होता खराब रूप में, दुर्गन्धरूप में यावत् छठे शतक के तृतीय उद्देशक में कहे अनुसार यावत् बार-बार अशुभ परिणाम प्राप्त करता है । हे कालोदायी। इसी प्रकार जीवों को प्राणातिपात से लेकर यावत् मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापस्थान का सेवन ऊपर-ऊपर से प्रारम्भ में तो अच्छा लगता है, किन्तु बाद में जब उनके द्वारा बाँधे हुए पापकर्म उदय में आते हैं, तब वे अशुभरूप में परिणत होते-होते दुरूपपने में, दुर्गन्धरूप में यावत् बार-बार अशुभ परिणाम पाते हैं । हे कालोदायी ! इस प्रकार से जीवों के पापकर्म अशुभफलविपाक से युक्त होते हैं।
भगवन् ! क्या जीवों के कल्याण (शुभ) कर्म कल्याणफलविपाक सहित होते हैं ? हाँ, कालोदायी ! होते हैं। भगवन् ! जीवों के कल्याणकर्म यावत् (कल्याणफलविपाक से संयुक्त) कैसे होते हैं ? कालोदायी ! जैसे कोई पुरुष मनोज्ञ स्थाली में पकाने से शुद्ध पका हुआ और अठारह प्रकार के दाल, शाक आदि व्यंजनों से यक्त औषध-मिश्रित भोजन करता है, तो वह भोजन ऊपर-ऊपर से प्रारम्भ में अच्छा न लगे, परन्तु बाद में परिणत होता-होता जब वह
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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