Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
View full book text
________________
आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक /उद्देशक/ सूत्रांक सात पीढ़ियों के बाद वह कुल-वंश भी नष्ट हो गया तथा उसके नाम-गोत्र भी समाप्त हो गए । इतने लम्बे समय तक चलते रहने पर भी देव अलोक के अन्त को प्राप्त नहीं कर सकते । भगवन् ! उन देवों का गतक्षेत्र अधिक है, या अगतक्षेत्र अधिक है ? गौतम ! वहाँ गतक्षेत बहुत नहीं, अगतक्षेत्र ही बहुत है । गतक्षेत्र से अगतक्षेत्र अनन्तगुणा है । अगतक्षेत्र से गतक्षेत्र अनन्तवे भाग है । हे गौतम ! अलोक इतना बड़ा है। सूत्र - ५१२
भगवन् ! लोक के एक आकाशप्रदेश पर एकेन्द्रिय जीवों के जो प्रदेश हैं, यावत् पंचेन्द्रिय जीवों के और अनिन्द्रिय जीवों के जो प्रदेश हैं, क्या वे सभी एक दूसरे के साथ बद्ध हैं, अन्योन्य स्पृष्ट हैं यावत् परस्पर-सम्बद्ध हैं? भगवन् ! क्या वे परस्पर एक दूसरे को आबाधा (पीड़ा) और व्याबाधा (विशेष पीड़ा) उत्पन्न करते हैं? या क्या वे उनके अवयवों का छेदन करते हैं? यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है।
भगवन् ! यह किस कारण से कहा ? गौतम ! जिस प्रकार कोई शंगार का घर एवं उत्तम वेष वाली यावत् सुन्दर गति, हास, भाषण, चेष्टा, विलास, ललित संलाप निपुण, युक्त उपचार से कलित नर्तकी सैकड़ों और लाखों व्यक्तियों से परिपूर्ण रंगस्थली में बत्तीस प्रकार के नाट्यों में से कोई एक नाट्य दिखाती है, तो-हे गौतम! वे प्रेक्षक-गण उस नर्तकी को अनिमेष दृष्टि से चारों ओर से देखते हैं न ? हाँ भगवन् ! देखते हैं । गौतम ! उनकी दृष्टियाँ चारों ओर से उस नर्तकी पर पड़ती हैं न ? हाँ, भगवन् ! पड़ती हैं । हे गौतम ! क्या उन दर्शकों की दृष्टियाँ उस नर्तकी को किसी प्रकार की थोड़ी या ज्यादा पीड़ा पहुँचाती है ? या उसके अवयव का छेदन करती हैं ? भगवन् ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । गौतम ! क्या वह नर्तकी दर्शकों की उन दृष्टियों को कुछ भी बाधा-पीड़ा पहुँचाती है या उनका अवयव-छेदन करती है ? भगवन् ! यह अर्थ भी समर्थ नहीं है । गौतम ! क्या वे दृष्टियाँ परस्पर एक दूसरे को किंचित् भी बाधा या पीड़ा उत्पन्न करती हैं ? या उनके अवयव का छेदन करती हैं ? भगवन् ! यह अर्थ भी समर्थ नहीं । हे गौतम ! इसी कारण से मैं ऐसा कहता हूँ कि जीवों के आत्मप्रदेश परस्पर बद्ध, स्पृष्ट और यावत् सम्बद्ध होने पर भी अबाधा या व्याबाधा उत्पन्न नहीं करते और न ही अवयवों का छेदन करते हैं। सूत्र - ५१३
भगवन् ! लोक के एक आकाशप्रदेश पर जघन्यपद में रहे हुए जीवप्रदेशों, उत्कृष्ट पद में रहे हुए जीव-प्रदेशों और समस्त जीवों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम ! लोक के एक आकाश प्रदेश पर जघन्यपद में रहे हुए जीवप्रदेश सबसे थोड़े हैं, उनसे सर्वजीव असंख्यातगुणे हैं, उनसे (एक आकाशप्रदेश पर) उत्कृष्ट पद में रहे हुए जीवप्रदेश विशेषाधिक हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-११ - उद्देशक-११ सूत्र- ५१४
उस काल और उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था । उसका वर्णन करना चाहिए। वहाँ द्युतिपलाश नामक उद्यान था । यावत् उसमें एक पृथ्वीशिलापट्ट था । उस वाणिज्यग्राम नगर में सुदर्शन नामक श्रेष्ठी रहता था। वह आढ्य यावत् अपरिभूत था । वह जीव अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता, श्रमणोपासक होकर यावत् विचरण करता था । महावीर स्वामी का वहाँ पदार्पण हुआ, यावत् परीषद् पर्युपासना करने लगी।
सुदर्शन श्रेष्ठी इस बात को सूनकर अत्यन्त हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ । उसने स्नानादि किया, यावत् प्रायश्चित्त करके समस्त वस्त्रालंकारों से विभूषित होकर अपने घर से नीकला । फिर कोरंट-पुष्प की माला से युक्त छत्र धारण करके अनेक पुरुषवर्ग से परिवृत्त होकर, पैदल चलकर वाणिज्यग्राम नगर के बीचोंबीच होकर नीकला और जहाँ द्युतिपलाश नामक उद्यान था, जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ आया । सचित्त द्रव्यों का त्याग आदि पाँच अभिगमपूर्वक वह सुदर्शन श्रेष्ठी भी, श्रमण भगवान महावीर के सम्मुख गया, यावत् तीन प्रकार से भगवान की पर्युपासना करने लगा । श्रमण भगवान महावीर ने सुदर्शन श्रेष्ठी और उस विशाल परीषद को धर्मोपदेश दिया, यावत वह आराधक हुआ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 239