Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक जमालिकुमार की तरह उत्तम रथ पर बैठकर उन्हें वन्दना करने गया । धर्मघोष अनगार ने भी केशीस्वामी के समान धर्मोपदेश दिया । सूनकर महाबल कुमार को भी जमालिकुमार के समान वैराग्य उत्पन्न हुआ। उसी प्रकार माता-पिता से अनगार धर्म में प्रवजित होने की अनुमति माँगी । विशेष यह है कि धर्मघोष अनगार से मैं मुण्डित होकर आगारवास से अनगार धर्म में प्रव्रजित होना चाहता हूँ। जमालिकुमार के समान उत्तर-प्रत्युत्तर हुए । विशेष यह है कि माता-पिता ने महाबल कुमार से कहा-हे पुत्र ! यह विपुल धर्म और उत्तम राजकुल में उत्पन्न हुईं कला-कुशल आठ कुलबालाओं को छोड़कर तुम क्यों दीक्षा ले रहे हो ? इत्यादि यावत् माता-पिता ने अनिच्छापूर्वक महाबल कुमार से कहा- हे पुत्र ! हम एक दिन के लिए भी तुम्हारी राज्यश्री देखना चाहते हैं। यह सूनकर महाबल कुमार चूप रहे ।
इसके पश्चात् बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, शिवभद्र के राज्याभिषेक अनुसार महाबल कुमार के राज्याभिषेक का वर्णन समझ लेना, यावत राज्याभिषेक किया, फिर हाथ जोडकर महाबल कुमार को जय-विजय शब्दों से बधाया; तथा कहा-हे पत्र ! कहो, हम तम्हें क्या देवें? तम्हारे लिए हम क्या करें ? इत्यादि जमालि के समान जानना, यावत् महाबल कुमार ने धर्मघोष अनगार से प्रव्रज्या ग्रहण कर ली।
दीक्षाग्रहण के पश्चात् महाबल अनगार ने धर्मघोष अनगार के पास सामायिक आदि चौदह पूर्वो का अध्ययन किया तथा उपवास, बेला, तेला आदि बहुत-से विचित्र तपःकर्मों से आत्मा को भावित करते हुए पूरे बारह वर्ष तक श्रमणपर्याय का पालन किया और अन्त में मासिक संलेखना से साठ भक्त अनशन द्वारा छेदन कर आलोचनाप्रतिक्रमण कर समाधिपूर्वक काल के अवसर पर काल करके ऊर्ध्वलोक में चन्द्र और सूर्य से भी ऊपर बहुत दूर, अम्बड़ के समान यावत् ब्रह्मलोककल्प में देवरूप में उत्पन्न हुए । महाबलदेव की दस सागरोपम की स्थिति थी । हे सुदर्शन ! वही महाबल का जीव तुम हो । तुम वहाँ दस सागरोपम तक दिव्य भोगों को भोगते हुए रह करके, वहाँ दस सागरोपम की स्थिति पूर्ण करके, वहाँ के आयुष्य का, स्थिति का और भव का क्षय होने पर वहाँ से च्यवकर सीधे इस भरतक्षेत्र में वाणिज्यग्राम-नगर में, श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से उत्पन्न हुए हो। सूत्र- ५२४
तत्पश्चात् हे सुदर्शन ! बालभाव से मुक्त होकर तुम विज्ञ और परिणतवय वाले हुए, यौवन अवस्था प्राप्त होने पर तुमने यथारूप स्थविरों से केवलि-प्ररूपित धर्म सूना । वह धर्म तुम्हें ईच्छित प्रतीच्छित और रुचिकर हआ। हे सुदर्शन ! इस समय भी तुम जो कर रहे हो, अच्छा कर रहे हो।
इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि इन पल्योपम और सागरोपम का क्षय और अपचय होता है। श्रमण भगवान महावीर से यह बात सुनकर और हृदय में धारण कर सुदर्शन श्रमणोपासक को शुभ अध्यवसाय से, शुभ परिणाम से और विशुद्ध होती हुई लेश्याओं से तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से और ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए संज्ञीपूर्व जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ, जिससे अपने पूर्वभव की बात को सम्यक् रूप से जानने लगा।
श्रमण भगवान महावीर द्वारा पूर्वभव का स्मरण करा देने से सुदर्शन श्रेष्ठी के हृदय में दुगुनी श्रद्धा और संवेग उत्पन्न हुए। उसके नेत्र आनन्दाश्रुओं से परिपूर्ण हो गए । भगवान महावीर को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा एवं वन्दना-नमस्कार करके बोला-भगवन् ! यावत् आप जैसा कहते हैं, वैसा ही है, सत्य है, यथार्थ है । ऐसा कहकर सुदर्शन सेठ उत्तरपूर्व दिशा में गया, इत्यादि यावत् सुदर्शन श्रेष्ठी ने प्रव्रज्या अंगीकार की। विशेष यह है कि चौदह पूर्वो का अध्ययन किया, पूरे बारह वर्ष तक श्रमणपर्याय का पालन किया; यावत् सर्व दुःखों से रहित हुए । शेष पूर्ववत् । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-११ - उद्देशक-१२ सूत्र - ५२५
उस काल और उस समय में आलभिका नामकी नगरी थी । वहाँ शंखवन नामक उद्यान था । इस आलभिका नगरी में ऋषिभद्रपुत्र वगैरह बहुत-से श्रमणोपासक रहते थे । वे आढ्य यावत् अपरिभूत थे, जीव और अजीव (आदि तत्त्वों) के ज्ञाता थे, यावत् विचरण करते थे। उस समय एक दिन एक स्थान पर आकर एक साथ एकत्रित होकर बैठे
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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