Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक जनपदों में विहार करने लगे।
उस काल और उस समय में आलभिका नामकी नगरी थी । वहाँ शंखवन नामक उद्यान था । उस शंखवन उद्यान के न अति दूर और न अति निकट मुद्गल परिव्राजक रहता था । वह ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि शास्त्रों यावत् बहुत-से ब्राह्मण-विषयक नयों में सम्यक निष्णात था । वह लगातार बेले-बेले का तपःकर्म करता हआ तथा आतापनाभूमि में दोनों भुजाएं ऊंची करके यावत् आतापना लेता हुआ विचरण करता था। इस प्रकार से बेले-बेले का तपश्चरण करते हुए मुद्गल परिव्राजक को प्रकृति की भद्रता आदि के कारण शिवराजर्षि के समान विभंगज्ञान उत्पन्न हुआ । उस समुत्पन्न विभंगज्ञान के कारण पंचम ब्रह्मलोक रूप कल्पमें रहे हुए देवों की स्थिति तक जानने-देखने लगा
तत्पश्चात् उस मुद्गल परिव्राजक को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि मुझे अतिशय-ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हआ है, जिससे मैं जानता हूँ कि देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है, उसके उपरांत एक समय अधिक, दो समय अधिक, यावत असंख्यात समय अधिक, इस प्रकार बढ़ते-बढ़ते उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम की है उससे आगे देव और देवलोक विच्छिन्न हैं। इस प्रकार उसने ऐसा निश्चय कर लिया। फिर वह आतापनाभूमि से नीचे ऊतरा और त्रिदण्ड, कुण्डिका, यावत् गैरिक वस्त्रों को लेकर आलभिका नगरी में जहाँ तापसों का मठ था, वहाँ आया वहाँ उसने अपने भण्डोपकरण रखे और आलभिका नगरी के शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क यावत् राजमार्ग पर एक-दूसरे से इस प्रकार कहने और प्ररूपणा करने लगा-हे देवानुप्रियो ! मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे मैं यह जानता-देखता हूँ कि देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट स्थिति यावत् (दस सागरोपम की है) । इससे आगे देवों और देवलोकों का अभाव है। इस बात को सूनकर आलभिका नगरी के लोग परस्पर शिवराजर्षि के अभिलाप के समान कहने लगे यावत्- हे देवानुप्रियो ! उनकी यह बात कैसे मानी जाए ?'
भगवान महावीर स्वामी का वहाँ पदार्पण हुआ, यावत् परीषद् वापस लौटी । गौतमस्वामी उसी प्रकार नगरी में भिक्षाचर्या के लिए पधारे तथा बहुत-से लोगोंमें परस्पर चर्चा होती हुई सूनी । शेष पूर्ववत्, यावत् (भगवान ने कहा-) गौतम ! मुद्गल परिव्राजक का कथन असत्य है । मैं इस प्रकार प्ररूपणा करता हूँ, इस प्रकार प्रतिपादन करता हूँ यावत् इस प्रकार कथन करता हूँ- देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति १०००० वर्ष की है। किन्तु इसके उपरांत एक समय अधिक, दो समय अधिक, यावत् उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागरोपम है। इससे आगे देव और देवलोक विच्छिन्न हो गए हैं। भगवन् ! क्या सौधर्म-देवलोक में वर्णसहित और वर्णरहित द्रव्य अन्योऽन्यबद्ध यावत् सम्बद्ध हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न । हाँ, गौतम ! हैं । इसी प्रकार क्या ईशान देवलोक में यावत् अच्युत देवलोक में तथा ग्रैवेयकविमानों में
और ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी में भी वर्णादिसहित और वर्णादिरहित द्रव्य है ? हाँ, गौतम ! है । तदनन्तर वह महती परीषद् (धर्मोपदेश सुनकर) यावत वापस लौट गई।
___ तत्पश्चात् आलभिका नगरी में शृंगाटक, त्रिक यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोगों से यावत् मुद्गल परिव्राजक ने भगवान द्वारा दिया अपनी मान्यता के मिथ्या होने का निर्णय सूनकर इत्यादि सब वर्णन शिवराजर्षि के समान कहना, यावत् सर्वदुःखों से रहित होकर विचरते हैं; मुद्गल परिव्राजक ने भी अपने त्रिदण्ड, कुण्डिका आदि उपकरण लिए, भगवा वस्त्र पहने और वे आलभिका नगरी के मध्य में होकर नीकले, यावत् उनकी पर्युपासना की। भगवान द्वारा अपनी शंका का समाधान हो जाने पर मुद्गल परिव्राजक भी यावत् उत्तरपूर्वदिशा में गए और स्कन्दक की तरह त्रिदण्ड, कुण्डिका एवं भगवा वस्त्र एकान्त में छोड़कर यावत् प्रव्रजित हो गए । यावत् वे सिद्ध अव्याबाध शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं यहाँ तक कहना चाहिए । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-११ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण ५/१- भगवती-अङ्गसूत्र-५/१-हिन्दी अनुवाद पूर्ण
__ भगवती-अङ्गसूत्र-५ (भाग-१) मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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