Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
View full book text
________________
आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक तदनन्तर वह बल राजा प्रभावती देवी से इस बात को सूनकर और समझकर हर्षित और सन्तुष्ट हुआ यावत् उसका हृदय आकर्षित हुआ । मेघ की धारा से विकसित कदम्ब के सुगन्धित पुष्प के समान उसका शरीर पुलकित हो उठा, रोमकूप विकसित हो गए । राजा बल उस स्वप्न के विषय में अवग्रह करके ईहा में प्रविष्ट हुआ, फिर उसने अपने स्वाभाविक बुद्धिविज्ञान से उस स्वप्न के फल का निश्चय किया । उसके बाद इष्ट, कान्त यावत् मंगलमय, परिमित, मधुर एवं शोभायुक्त सुन्दर वचन बोलता हुआ राजा बोला- हे देवी ! तुमने उदार स्वप्न देखा है । देवी ! तुमने कल्याणकारक यावत् शोभायुक्त स्वप्न देखा है । हे देवी ! तुमने आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याणरूप एवं मंगलकारक स्वप्न देखा है । हे देवानुप्रिये ! (तुम्हें) अर्थलाभ, भोगलाभ, पुत्रलाभ और राज्यालाभ होगा । हे देवानुप्रिये ! नौ मास
और साढ़े तीन दिन व्यतीत होने पर तुम हमारे कुल में केतु-समान, कुल के दीपक, कुल में पर्वततुल्य, कुल का शेखर, कल का तिलक, कल की कीर्ति फैलाने वाले, कल को आनन्द देने वाले, कल का यश बढाने वाले, कल के आधार, कुल में वृक्ष समान, कुल की वृद्धि करने वाले, सुकुमाल हाथ-पैर वाले, अंगहीनता-रहित, परिपूर्ण पंचेन्द्रिययुक्त शरीर वाले, यावत चन्द्रमा के समान सौम्य आकति वाले, कान्त, प्रियदर्शन, सुरूप एवं देवकुमार के समान को जन्म देगी। वह बालक भी बालभाव से मुक्त होकर विज्ञ और कलादि में परिपक्व होगा । यौवन प्राप्त होते ही वह शूरवीर, पराक्रमी तथा विस्तीर्ण एवं विपुल बल और वाहन वाला राज्या-धिपति राजा होगा । अतः हे देवी ! तुमने उदार स्वप्न देखा है, यावत् देवी ! तुमने आरोग्य, तुष्टि यावत् मंगलकारक स्वप्न देखा है, इस प्रकार बल राजा ने प्रभावती देवी को इष्ट यावत् मधुर वचनों से वही बात दो बार और तीन बार कही।
तदनन्तर वह प्रभावती रानी, बल राजा से इस बात को सूनकर, हृदय में धारण करके हर्षित और सन्तुष्ट हुई; और हाथ जोड़कर यावत् बोली- हे देवानुप्रिय ! आपने जो कहा, वह यथार्थ है, देवानुप्रिय ! वह सत्य है, असंदिग्ध है। वह मुझे ईच्छित है, स्वीकृत है, पुनः पुनः ईच्छित और स्वीकृत है । इस प्रकार स्वप्न के फल को सम्यक् रूप से स्वीकार किया और फिर बल राजा की अनुमति लेकर अनेक मणियों और रत्नों से चित्रित भद्रासन से उठी । फिर शीघ्रता और चपलता से रहित यावत् गति से जहाँ अपनी शय्या थी, वहाँ आई और शय्या पर बैठकर कहने लगी- मेरा यह उत्तम, प्रधान एवं मंगलमय स्वप्न दूसरे पापस्वप्नों से विनष्ट न हो जाए। इस प्रकार विचार करके देवगुरुजनसम्बन्धी प्रशस्त और मंगलरूप धार्मिक कथाओं से स्वप्नजागरिका के रूप में वह जागरण करती हुई बैठी रही।
तदनन्तर बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनको इस प्रकार का आदेश दिया- देवानुप्रियो ! बाहर की उपस्थानशाला आज शीघ्र ही विशेषरूप से गन्धोदक छिड़क कर शुद्ध करो, स्वच्छ करो, लीप कर सम करो सुगन्धित और उत्तम पाँच वर्ण के फूलों से सुसज्जित करो, उत्तम कालागुरु और कुन्दरुष्क के धूप से यावत् सुगन्धित गुटिका के समान करो-कराओ, फिर वहाँ सिंहासन रखो । ये सब कार्य करके यावत् मुझे वापस निवेदन करो। तब यह सूनकर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने बल राजा का आदेश शिरोधार्य किया और यावत् शीघ्र ही विशेषरूप से बाहर की उपस्थानशाला को यावत् स्वच्छ, शुद्ध, सुगन्धित किया यावत् आदेशानुसार सब कार्य करके राजा से निवेदन किया ।
इसके पश्चात् बल राजा प्रातःकाल के समय अपनी शय्या से उठे और पादपीठ से नीचे ऊतरे । फिर वे जहाँ व्यायामशाला थी, वहाँ गए । व्यायामशाला तथा स्नानगृह के कार्य का वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार जान लेना, यावत् चन्द्रमा के समान प्रिय-दर्शन बनकर वह नृप, स्नानगृह से नीकले और जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी वहाँ आए । सिंहासन पर पूर्वदिशा की ओर मुख करके बैठे । फिर अपने से ईशानकोण में श्वेत वस्त्र से आच्छा-दित तथा सरसौं आदि मांगलिक पदार्थों से उपचरित आठ भद्रासन रखवाए । तत्पश्चात् अपने से न अति दूर और न अति निकट अनेक प्रकार के मणिरत्नों से सुशोभित, अत्यधिक दर्शनीय, बहुमूल्य श्रेष्ठ पट्टन में निर्मित सूक्ष्म पट पर सैकड़ोंचित्रों की रचना से व्याप्त, ईहामृग, वृषभ आदि के यावत् पद्मलता के चित्र से युक्त एक आभ्यन्तरिक यवनिका लगवाई। (उस पर्दे के अन्दर) अनेक प्रकार के मणिरत्नों से एवं चित्र से रचित विचित्र खोली वाले, कोमल वस्त्र से आच्छादित, तथा श्वेत वस्त्र चढ़ाया हुआ, अंगों को सुखद स्पर्श वाला तथा सुकोमल गद्दीयुक्त एक भद्रासन रखवा दिया। फिर बल राजा ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उन्हें कहा-हे देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र ही अष्टांग महानिमित्त के सूत्र
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 242