Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 191
________________ आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक भगवन् ! केवली आदि से सुने बिना ही क्या कोई जीव शुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान उपार्जन कर लेता है ? गौतम कोई जीव प्राप्त करता है और कोई नहीं प्राप्त करता । भगवन् ! किस कारण से यावत् नहीं प्राप्त करता ? गौतम ! जिस जीव ने आभिनिबोधिक-ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम किया है, वह केवली आदि से सुने बिना ही शुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान उपार्जन कर लेता है, किन्तु जिसने आभिनिबोधिक-ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपसम नहीं किया है, वह केवली आदि से सुने विना शुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान का उपार्जन नहीं कर पाता । भगवन् ! केवली आदि से सुने बिना ही क्या कोई जीव श्रुतज्ञान उपार्जन कर लेता है ? (गौतम !) आभिनिबोधिकज्ञान के समान शुद्ध श्रुतज्ञान में भी कहना । विशेष इतना कि यहाँ श्रुतज्ञानवरणीयकर्मों का क्षयोपशम कहना । इसी प्रकार शुद्ध अवधि ज्ञान उपार्जनके विषयमें कहना । विशेष यह कि यहाँ अवधिज्ञानावरणीयकर्म का क्षयोपशम कहना। इसी प्रकार शुद्ध मनःपर्ययज्ञान के उत्पन्न होने के विषय में कहना । विशेष इतना कि मनःपर्ययज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम का कथन करना । भगवन् ! केवली यावत् केवलिपाक्षिक की उपासिका से सुने बिना ही क्या कोई जीव केवलज्ञान उपार्जन कर लेता है ? पूर्ववत् यहाँ भी कहना । विशेष इतना कि यहाँ केवलज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय कहना । शेष पूर्ववत् । भगवन् ! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक-उपासिका के पास से धर्मश्रवण किये बिना ही क्या कोई जीव केवलि-प्ररूपित धर्म-श्रवण-लाभ करता है ? शुद्ध बोधि प्राप्त करता है ? मुण्डित होकर अगारवास से शुद्ध अनगारिता को स्वीकार करता है ? शुद्ध ब्रह्मचार्यवास धारण करता है ? शुद्ध संयम द्वारा संयम-यतना करता है ? शुद्ध ब्रह्मचार्यवास धारण करता है ? शुद्ध संयम द्वार संयम-यतना करता है ? शुद्ध संवर से संवृत होता है ? शुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान उत्पन्न करता है, यावत् शुद्ध मनःपर्यवज्ञान तथा केवलज्ञान उत्पन्न करता हे ? गौतम ! कोई जीव केवलि-प्ररूपित धर्म-श्रवण का लाभ पाता है, कोई जीव नहीं पाता है । कोई जीव शुद्ध बोधिलाभ प्राप्त करता है, कोई नहीं प्राप्त करता है । कोई जीव मुण्डित हो कर अगारवास से शुद्ध अनगारधर्म में प्रव्रजित होता है और कोई प्रव्रजित नहीं होता है । कोई जीव शुद्ध ब्रह्मचर्यवास को धारण करता है और कोई धारण नहीं करता है। कोई जीव शुद्ध संयम से संयम-यतना करता है और कोई नहीं करता है । कोई जीव शुद्ध संवर से संवृत होता है और कोई जीव संवृत नहीं होता है । इसी प्रकार कोई जीव आभिनिबोधिकज्ञान का उपार्जन करता है और कोई उपार्जन नहीं करता है । कोई जीव यावत् मनः पर्यवज्ञान का उपार्जन करता है और कोई नहीं करता है । कोई जीव केवलज्ञान का उपार्जन करता है और कोई नहीं करता है । भगवन् ! इस कथन का क्या कारण है कि कोई जीव केवलिप्ररूपित धर्मश्रवण-लाभ करता है, यावत् केवलज्ञान का नहीं करता है ? गौतम ! जिस जीव ने-ज्ञानावरणीयकर्म का क्षयोपशम नहीं किया, दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, धर्मान्तरायिककर्मका, चारित्रावरणीयकर्मका, यतनावरणीयकर्मका, अध्यवसानावरणीयकर्मका, आभिनिबोधिकज्ञानावरणीयकर्मका, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय और मनःपर्यवज्ञानावरणीयकर्मका क्षयोपसम नहीं किया तथा केवल ज्ञानावरणीयकर्म का क्षय नहीं किया, वे जीव केवली आदि से धर्मश्रवण किये विना धर्म-श्रवणलाभ नहीं पाते, शुद्धबोधिकलाभ का अनुभव नहीं करते, यावत् केवलज्ञान को उत्पन्न नहीं कर पाते । किन्तु जिस जीव ने ज्ञानावरणीयकर्मों का, दर्शनावरणीयकर्मों का, धर्मान्तरायिककर्मों का यावत् केवलज्ञानावरणीयकर्मों का क्षय किया है, वह केवली आदि से धर्मश्रवण किये विना ही केवलिप्ररूपति धर्म-श्रवण लाभ प्राप्त करता है, शुद्ध बोधिलाभ का अनुभव करता है, यावत् केवलज्ञान को उपार्जित कर लेता है। सूत्र - ४४६ _ निरन्तर छठ-छठ का तपःकर्म करते हुए सूर्य के सम्मुख बाहें ऊंची करके आतापनाभूमि में आतापना लेते हुए उस जीव की प्रकृति-भद्रता से, प्रकृति की उपशान्तता से स्वाभाविक रूप से ही क्रोध, मान, माया और लाभ की अत्यन्त मन्दता होने से, अत्यन्त मृदुत्वसम्पन्नता से, कामभोगों में अनासक्ति से, भद्रता और विनीतता से तथा किसी समय शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम, विशुद्ध लेश्या एवं तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए विभंग नामक अज्ञान उत्पन्न होता है । फिर वह उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान द्वारा जघन्य अंगुल के मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 191

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