Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 235
________________ आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक इस शिवराजर्षि की रक्षा करें, इत्यादि अवशिष्ट सभी वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए यावत् तत्पश्चात् शिवराजर्षि ने स्वयं आहार किया । इसके बाद निरन्तर बेले-बेले की तपश्चर्या के दिक्चक्रवाल का प्रोक्षण करनेसे, यावत् आतापना लेनेसे तथा प्रकृति की भद्रता यावत् विनीतता से शिवराजर्षि को किसी दिन तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम के कारण ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए विभंग ज्ञान उत्पन्न हुआ । उत्पन्न हुए विभंगज्ञान से वे इस लोकमें सात द्वीप, सात समुद्र देखने लगे । इससे आगे वे न जानते थे, न देखते थे। तत्पश्चात् शिवराजर्षि को इस प्रकार का विचार यावत् उत्पन्न हआ कि, “मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्न्न हुआ है । इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं । उससे आगे द्वीपसमुद्रों का विच्छेद है । ऐसा विचार कर वे आतापना-भूमि से नीचे उतरे और वल्कलवस्त्र पहने, फिर जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए । वहाँ से अपने लोढ़ी, लोहे कड़ाह, कुड़छी आदि बहुत-से भण्डोपकरण तथा छबड़ी-सहित कावड़ को लेकर वे हस्तिनापुर नगर में जहाँ तापसों का आश्रम था, वहाँ आए । वहाँ उसने तापसोचित उपकरण रखे और फिर हस्तिनापुर नगर के शृंटागक, त्रिक यावत् राजमार्गों में बहुत-से मनुष्यों को इस प्रकार कहने और यावत् प्ररूपणा करने लगे- हे देवानुप्रियो ! मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे मैं यह जानता और देखता हूँ कि इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं तदनन्तर शिवराजर्षि से यह बात सुनकर और विचार कर हस्तिनापुर नगर के शृंगाटक, त्रिक यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोग एक-दूसरे से इस प्रकार कहने यावत् बतलाने लगे-हे देवानुप्रियो ! शिवराजर्षि जो इस प्रकार की बात कहते यावत् प्ररूपणा करते हैं कि देवानुप्रियो ! मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, यावत् इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र ही हैं। इससे आगे द्वीप और समुद्रों का अभाव है, उनकी यह बात इस प्रकार कैसे मानी जाए। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ पधारे । परीषद् ने धर्मोपदेश सूना, यावत् वापस लौट गई । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूमि अनगार ने, दूसरे शतक के निर्ग्रन्थोद्देशक में वर्णित विधि के अनुसार यावत् भिक्षार्थ पर्यटन करते हुए, बहुत-से लोगों के शब्द सूने वे परस्पर एक-दूसरे से इस प्रकार कह रहे थे, यावत् इस प्रकार बतला रहे थे-हे देवानुप्रियो ! शिव-राजर्षि यह कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि हे देवानुप्रियो ! इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं, इत्यादि यावत् उससे आगे द्वीप-समुद्र नहीं हैं, तो उनकी यह बात कैसे मानी जाए?' बहुत-से मनुष्यों से यह बात सूनकर और विचार कर गौतम स्वामी को संदेह, कुतूहल यावत् श्रद्धा उत्पन्न हुई वे निर्ग्रन्थोद्देशक में वर्णित वर्णन के अनुसार भगवान की सेवा में आए और पछा- शिवराजर्षि जो यह कहते हैं, उससे आगे द्वीपों और समुद्रों का सर्वथा अभाव है, भगवन् ! क्या उनका ऐसा कथन यथार्थ है ?' भगवान महावीर ने कहा- हे गौतम ! जो ये बहुत-से लोग परस्पर ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं शिव-राजर्षि को विभंगज्ञान उत्पन्न होने से लेकर यावत् उन्होंने तापस-आश्रम में भण्डोपकरण रखे । हस्तिनापुर नगर में शृंगाटक, त्रिक आदि राजमार्गों पर वे कहने लगे-यावत् सात द्वीप-समुद्रों से आगे द्वीपसमुद्रों का अभाव है, इत्यादि कहना । तदनन्तर शिवराजर्षि से यह बात सुनकर बहुत से मनुष्य ऐसा कहते हैं, यावत् उससे आगे द्वीप-समुद्रों का सर्वथा अभाव है। वह कथन मिथ्या है । हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि वास्तव में जम्बूद्वीपादि द्वीप एवं लवणादी समुद्र एक सरीखे वृत्त होने से आकार में एक समान हैं परन्तु विस्तार में वे अनेक प्रकार के हैं, इत्यादि जीवाभिगम अनुसार जानना, यावत् हे आयुष्मन् श्रमणों ! इस तिर्यक् लोक में असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं । भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप नामक द्वीप में वर्णसहित और वर्णरहित, गन्धसहित और गन्धरहित, सरस और अरस, सस्पर्श और अस्पर्श द्रव्य, अन्योन्यबद्ध तथा अन्योन्यस्पृष्ट यावत् अन्योन्यसम्बद्ध हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन् क्या लवणसमुद्र में वर्णसहित और वर्णरहित, गन्धसहित और गन्धरहित, रसयुक्त और रसरहित तथा स्पर्शयुक्त और स्पर्शरहित द्रव्य, अन्योन्यबद्ध तथा अन्योन्यस्पृष्ट यावत् अन्योन्यसम्बद्ध हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन् ! क्या धातकीखण्डद्वीप में सवर्ण-अवर्ण आदि द्रव्य यावत् अन्योन्यसम्बद्ध हैं ? हाँ, गौतम ! हैं | इसी प्रकार यावत् स्वयम्भूरमणसमुद्र में भी यावत् द्रव्य अन्योन्यसम्बद्ध हैं ? हाँ, हैं । इसके पश्चात् वह अत्यन्त-महती विशाल परीषद मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 235

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