Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 234
________________ आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक तदनन्तर किसी समय शिव राजा ने प्रसस्त तिथि, करण, नक्षत्र और दिवस एवं शुभ मुहूर्त में विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवाया और मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन, परिजन, राजाओं एवं क्षत्रियों आदि को आमंत्रित किया । तत्पश्चात् स्वयं ने स्नानादि किया, यावत् शरीर पर (चंदनादि का लेप किया) । (फिर) भोजन के समय भोजनमण्डप में उत्तम सुखासन पर बैठा और उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन यावत् परिजन, राजाओं और क्षत्रियों के साथ विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का भोजन किया । फिर तामली तापस के अनुसार, यावत् उनका सत्कार-सम्मान किया । तत्पश्चात् उन मित्र, ज्ञातिजन आदि सभी की तथा शिवभद्र राजा की अनुमति लेकर लोढ़ी-लोहकटाह, कुड़छी आदि बहुत से तापसोचित भण्डोपकरण ग्रहण किए और गंगातट निवासी जो वानप्रस्थ तापस थे, वहाँ जाकर, यावत् दिशाप्रोक्षक तापसों के पास मुण्डित होकर दिशाप्रोक्षक-तापस के रूप में प्रव्रजित हो गया । प्रव्रज्या ग्रहण करते ही शिवराजर्षि ने इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया आज से जीवन पर्यन्त मुझे बेलेबेले करते हुए विचरना कल्पनीय है; इत्यादि पूर्ववत् यावत् अभिग्रह धारण करके प्रथम छ? तप अंगीकार करके विचरने लगा। तत्पश्चात् वह शिवराजर्षि प्रथम छट्ठ (बेले) के पारणे के दिन आतापना भूमि से नीचे उतरे, फिर उन्होंने वल्कलवस्त्र पहने और जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए । वहाँ से किढीण (बाँस का पात्र) और कावड़ को लेकर पूर्व दिशा का पूजन किया । हे पूर्व दिशा के (लोकपाल) सोम महाराज ! प्रस्थान में प्रस्थित हुए मुझ शिवराजर्षि की रक्षा करें, और यहाँ (पूर्वदिशा में) जो भी कन्द, मूल, छाल, पत्ते, पुष्प, फल, बीज और हरी वनस्पति है, उन्हें लेने की अनुज्ञा दें; यों कहकर शिवराजर्षि ने पूर्वदिशा का अवलोकन किया और वहाँ जो भी कन्द, मूल, यावत् हरी वनस्पति मिली, उसे ग्रहण की और कावड़ में लगी हुई बाँस की छबड़ी में भर ली । फिर दर्भ, कुश, समिधा और वृक्ष की शाखा को मोड़कर तोड़े हुए पत्ते लिए और जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए । कावड़ सहित छबड़ी नीचे रखी, फिर वेदिका का प्रमार्जन किया, उसे लीपकर शुद्ध किया । तत्पश्चात् डाभ और कलश हाथ में लेकर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आए। गंगा महानदी में अवगाहन किया और उसके जल से देह शुद्ध की । फिर जलक्रीड़ा की, पानी अपने देह पर सींचा, जल का आचमन आदि करके स्वच्छ और परम पवित्र होकर देव और पितरों का कार्य सम्पन्न करके कलश में डाभ डालकर उसे हाथ में लिए हुए गंगा महानदी से बाहर नीकले और जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए । कुटी में उन्होंने डाभ, कुश और बालू से वेदी बनाई । फिर मथनकाष्ठ से अरणि की लकड़ी घिसी और आग सुलगाई । अग्नि जब धधकने लगी तो उसमें समिधा की लकडी डाली और आग अधिक प्रज्वलित की। फिर अग्नि के दाहिनी ओर ये सात वस्तुएं रखीं, यथा- सकथा, वल्कल, स्थान, शय्याभाण्ड, कमण्डलु, लकड़ी का डंडा और शरीर । सूत्र- ५०८ फिर मधु, घी और चावलों का अग्नि में हवन किया और चरु (बलिपात्र) में बलिद्रव्य लेकर बलिवैश्वदेव को अर्पण किया और तब अतिथि की पूजा की और उसके बाद शिवराजर्षि ने स्वयं आहार किया । तत्पश्चात् उन शिवराजर्षि ने दूसरी बेला अंगीकार किया और दूसरे बेले के पारणे के दिन शिवराजर्षि आतापनाभूमि से नीचे ऊतरे, वल्कल के वस्त्र पहने, यावत् प्रथम पारणे की जो विधि की थी, उसीके अनुसार दूसरे पारणे में भी किया । इतना विशेष है कि दूसरे पारणे के दिन दक्षिण दिशा की पूजा की । हे दक्षिण दिशा के लोकपाल यम महाराज ! परलोकसाधना में प्रवृत्त मुझ शिवराजर्षि की रक्षा करें, इत्यादि शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए; यावत् अतिथि की पूजा करके फिर उसने स्वयं आहार किया। तदनन्तर उन शिव राजर्षि ने तृतीय बेला अंगीकार किया। उसके पारणे के दिन शिवराजर्षि ने पूर्वोक्त सारी विधि की । इसमें इतनी विशेषता है कि पश्चिमदिशा की पूजा की और प्रार्थना की-हे पश्चिम दिशा के लोकपाल वरुण महाराज ! परलोक-साधना-मार्ग में प्रवृत्त मुझ शिवराजर्षि की रक्षा करें, इत्यादि यावत् तब स्वयं आहार किया । तत्पश्चात् उन शिवराजर्षि ने चतुर्थ बेला अंगीकार किया । फिर इस चौथे बेले के तप के पारणे के दिन पूर्ववत सारी विधि की । विशेष यह है कि उन्होंने उत्तरदिशा की पूजा की और इस प्रकार प्रार्थना की-हे उत्तर-दिशा के लोकपाल वैश्रमण महाराज ! परलोक-साधना-मार्ग में प्रवृत्त मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 234

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