Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 223
________________ टी आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक देवी के मध्य में से होकर जा सकती है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । इसी प्रकार सम-ऋद्धिक देवी का सम-ऋद्धिक के साथ पूर्ववत् आलापक कहना चाहिए । महर्द्धिक देवी का अल्प-ऋद्धिक देवी के साथ आलापक कहना चाहिए। इसी प्रकार एक-एक के तीन-तीन आलापक कहने चाहिए; यावत्-भगवन् ! वैमानिक महर्द्धिक देवी, अल्पऋद्धिक वैमानिक देवी के मध्य में होकर जा सकती है ? हाँ गौतम ! जा सकती है; यावत्-क्या वह महर्द्धिक देवी, उसे विमोहित करके जा सकती है या विमोहित किए बिना भी जा सकती है ? थता पहले विमोहित करके बाद में जाती है, अथवा पहले जा कर बाद में विमोहित करती है ? हे गौतम ! पूर्वोक्त रूप से कि पहले जाती है और पीछे भी विमोहित करती है; तक कहना चाहिए । इस प्रकार के चार दण्डक कहने चाहिए। सूत्र-४८३ भगवान् ! दौड़ता हुआ घोड़ा खु-खु शब्द क्यों करता है ? गौतम ! जब घोड़ा दौड़ता है तो उसके हृदय और यकत के बीच में कर्कट नामक वायु उत्पन्न होती है, इससे दौड़ता हुआ घोड़ा खु-खु शब्द करता है। सूत्र-४८४-४८६ इन बारह प्रकार की भाषाओं में हम आश्रय करेंगे, शयन करेगें, खड़े रहेंगे, बैठेंगे और लेटेंगे इत्यादि भाषण करना क्या प्रज्ञापनी भाषा कहलाती है और ऐसा भाषा मृषा नहीं कहलाती है ? हाँ, गौतम ! यह आश्रय करेंगे, इत्यादि भाषा प्रज्ञापनी भाषा है, यह भाषा मृषा नहीं है। हे, भगवान् ! यह इसी प्रकार है, यह इसी प्रकार है! आमंत्रणी, आज्ञापनी, याचनी, पृच्छनी, प्रज्ञापनी, प्रत्याख्यानी, इच्छानुलोमा । अनभिगृहीता, अभिगृहीता, संशयकरणी, व्याकृता और अव्याकृता। शतक-१०- उद्देशक-४ सूत्र-४८७ उस काल और उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था (वर्णन) वहाँ द्युतिपलाश नामक उद्यान था । वहाँ श्रमण भगवान महावीर का समवसरण हुआ यावत् परीषद् आई और वापस लौट गई। उस काल और उस समय में, श्रमण भगवान महावीरस्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार थे। वे ऊर्ध्वजानु यावत् विचरण करते थे। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के एक अन्तेवासी थे-श्यामहस्ती नामक अनगार । वे प्रकृतिभद्र, प्रकृतिविनीत, यावत् रोह अनगार के समान ऊर्ध्वजानु, यावत् विचरण करते थे । एक दिन उन श्यामहस्ती नामक अनगार को श्रद्धा यावत् अपने स्थान से उठे और उठकर जहाँ भगवान गौतम विराजमान थे, वहाँ आए । भगवान गौतम के पास आकर वन्दना-नमस्कार कर यावत् पर्युपासना करते हुए इस प्रकार पूछने लगे भगवन् ! क्या असुरकुमारों के राजा, असुरकुमारों के इन्द्र चमर के त्रायस्त्रिंशक देव हैं ? हाँ, हैं । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं ? हे श्यामहस्ती ! उस काल उस समय में इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भारतवर्ष में काकन्दी नामकी नगरी थी । उस काकन्दी नगरी में सहायक तैंतीस गृहपति श्रमणोपासक रहते थे। वे धनाढ्य यावत् अपरिभूत थे । वे जीव-अजीव के ज्ञाता एवं पुण्यपाप को हृदयंगम किए हुए विचरण करते थे। एक समय था, जब वे परस्पर सहायक गृहपति श्रमणोपासक पहले उग्र, उग्र-विहारी, संविग्न, संविग्नविहारी थे, परन्तु तत्पश्चात् वे पार्श्वस्थ, री, अवसन्न, अवसन्नविहारी, कुशील, कुशीलविहारी, यथाच्छन्द और यथाच्छन्द-विहारी हो गए। बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक-पर्याय का पालन कर, अर्धमासिक संलेखना द्वारा शरीर का कूश करके तथा तीस भक्तों का अनशन द्वारा छेदन करके, उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल के अवसर पर काल कर वे असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उत्पन्न हए हैं। (श्यामहस्ती गौतमस्वामी से)-भगवन् ! जब वे काकन्दीनिवासी परस्पर सहायक तैंतीस गृहपति श्रमणोपासक असुरराज चमर के त्रायस्त्रिंशक-देवरूप में उत्पन्न हुए हैं, क्या तभी से ऐसा कहा जाता है कि असुरराज असुरेन्द्र चमर के (ये) तैंतीस देव त्रायस्त्रिंशक देव हैं? तब गौतमस्वामी शंकित, कांक्षित एवं विचिकित्सक हो गए। वे वहाँ से उठे और श्यामहस्ती अनगार के साथ जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ आए । श्रमण भगवान मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 223

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