Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक शिबिका को ठहराया और स्वयं उस सहस्रपुरुषवाहिनी शिबिका से नीचे उतरा । क्षत्रियकुमार जमालि को आगे करके उसके माता-पिता, जहाँ श्रमण भगवान् महावर विराजमान थे, वहाँ उपस्थित हुए और दाहिनी ओर से तीन वार प्रदक्षिणा की, यावत् वन्दना-नमस्कार करके कहा-भगवन् ! यह क्षत्रियकुमार जमालि, हमारा इकलौता, इष्ट, कान्त
और प्रिय पुत्र है । यावत्-इसका नाम सुनना भी दुर्लभ है तो दर्शन दुर्लभ हो, इसमें कहना ही क्या ! जैसे कोई कमल, पद्म या यावत् सहस्रदलकमल कीचड़ में उत्पन्न होने और जल में संवर्द्धित होने पर भी पंकरज से लिप्त नहीं होता, न कलकण से लिप्त होता है; इसी प्रकार क्षत्रियकुमार जमालि भी काम भी काम में उत्पन्न हुआ, भोगों में संवर्द्धित हुआ; किन्तु काम में रंचमात्र भी लिप्त नहीं हुआ और न ही भोग के अंशमात्र से लिप्त हुआ और न यह मित्र, ज्ञाति, निज सम्बन्धी स्वजन सम्बन्धी और परिजनों में लिप्त हआ है । हे देवानप्रिय! यह संसार भय से उदिग्न हो गया है. यह जन्म-मरण के भय से भयभीत हो चुका है । अतः आप देवानुप्रिय के पास मुण्डित हो कर, अगारवास छोड़ कर अनगार धर्म में प्रव्रजित हो रहा है। इसलिए हम आप देवानुप्रिय को यह शिष्यभिक्षा देते हैं। आप देवानप्रिय ! इस शिष्य रूप भिक्षा को स्वीकार करें।
इस पर श्रमण भगवान महावीर ने उस क्षत्रियकुमार जमालि से इस प्रकार कहा- हे देवानप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसा करो, किन्तु विलम्ब मत करो | भगवान् के ऐसा कहने पर क्षत्रियकुमार जमालि हर्षित और तुष्ट हुआ; तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा कर यावत् वन्दना नमस्कार कर, ईशानकोण में गया। वहाँ जा कर उसने स्वयं ही आभूषण, माला और अलंकार उतार दिये । तत्पश्चात् जमालि क्षत्रियकुमार की माता ने उन आभूषणों, माला एवं अलंकारों को हंस के चिह्न वले एक पटशाटक में ग्रहण कर लिया और फिर हार, जलधारा इत्यादि के समान यावत् आंसू हुई अपने पुत्र से इस प्रकार बोली-हे पुत्र! संयम में चेष्टा करना, पुत्र ! संयम में यत्न करना; हे पुत्र ! संयम में पराक्रम करना । इस विषय में जरा भी प्रमाद न करना । इस प्रकार कह कर क्षत्रियकुमार जमालि के माता-पिता श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार करके जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में वापस चले गए।
इसके पश्चात् जमालिकुमार ने स्वयमेव पंचमुष्टिक लोच किया, फिर श्रमण भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित हुआ और ऋषभदत्त ब्राह्मण की तरफ भगवान् के पास प्रव्रज्या अंगीकार की। विशेषता यह है कि जमालि क्षत्रियकुमार ने ५०० पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की, शेष सब वर्णन पूर्ववत् है, यावत् जमालि अनगार ने सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और बहुत-से उपवास, बेला, तेला, यावत अर्द्धमास, मासख्मण इत्यादि विचित्र तपःकर्मोः से अपनी आत्मा को भावित करता हआ विचरण करने लगा। सूत्र-४६६
तदनन्तर एक दिन जमालि अनगार श्रमण भगवान् महावीर के पास आए और भगवान् महावीर को वन्दनानमस्कार करके इस प्रकार बोले-भगवन् ! आपकी आज्ञा प्राप्त होने पर मैं पांच सौ अनगारों के साथ इस जनपद से बाहर विहार करना चाहता हूँ । यह सुनकर श्रमण भगवान् महावीर ने जमालि अनगार की इस बात को आदर नहीं दिया, न स्वीकार किया । वे मौन रहे । तब जमालि अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर से दूसरी बार और तीसरी बार भी इस प्रकार कहा-भंते ! आपकी आज्ञा मिल जाए तो मैं पांच सौ अनगारों के साथ अन्य जनपदों में विहार करना चाहता हूँ। जमालि अनगार के दूसरी बार और तीसरी बार भी वही बात कहने पर श्रमण भगवान महावीर ने इस बात का आदर नहीं किया, यावत् वे मौन रहे । तब जमालि अनगार ने श्रमण मगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया
और फिर उनके पास से, बहुशालक उद्यान से निकला और फिर पांच सौ अनगारों के साथ बाहर के जनपदों में विचरण करने लगा।
उस काल उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी । (वर्णन) वहाँ कोष्ठक नामक उद्यान था, उसका और वनखण्ड तक का वर्णन (जान लेना चाहिए) । उस काल और उस समय में चम्पा नाम की नगरी थी । (वर्णन) वहाँ पूर्णभद्र नामक चैत्य था । (वर्णन) तथा यावत् उसमें पृथ्वीशिलापट्ट था । एक बार वह जमालि अनगार, पांच सौ
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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