Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/सूत्रांक सूत्र-४३५
भगवन् ! कर्मप्रकृतियां कितनी हैं ? गौतम् ! कर्मप्रकृतियां आठ-ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय । भगवन् ! नैरयिकों के कितनी कर्मप्रकृतियां हैं ? गौतम ! आठ । इसी प्रकार वैमानिकपर्यन्त सभी जीवो के आठ कर्मप्रकृतियों कहनी चाहिए।
भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग-परिच्छेद हैं ? गौतम ! अनन्त अविभाग-परिच्छेद हैं । भगवन् ! नैरयिको के ज्ञानावरणीयकर्म के कितने अविभाग-परिच्छेद हैं ? गौतम ! अनन्तण अविभाग-परिच्छेद हैं। भगवन ! इसी प्रकार वैमानिकपर्यन्त सभी जीवों के ज्ञानावरणीयकर्म के भी अनन्त अविभाग-परिच्छेद हैं । जिस प्रकार ज्ञानावरणीयकर्म के अविभाग-परिच्छेद कहे हैं, उसी प्रकार वैमानिक-पर्यन्त सभी जीवों के अन्तराय कर्म तक आठों कर्मप्रकृतियों के अविभाग-परिच्छेद कहना।
भगवन् ! प्रत्येक जीव का प्रत्येक जीवप्रदेश ज्ञानावरणीयकर्म के कितने अविभागपरिच्छेदों से अवेष्टितपरिवेष्टित है ? हे गौतम ! वह कदाचित् आवेष्टित-परिवेष्टित होता है, कदाचित आवेष्टित-परिवेष्टित नहीं होता । यदि आवेष्टित-परिवेष्टित होता है तो वह नियमतः अनन्त अविभाग-परिच्छेदों से होता है। भगवन् ! प्रत्येक नैरयिक जीव का प्रत्येक जीवप्रदेश ज्ञानावरणीयकर्म के कितने अविभाग-परिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित होता है ? गौतम ! वह नियमतः अनन्त अविभाग-परिच्छेदों से जिस प्रकार नैरयिक जीवों के विषय में कहा, उसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए : परन्तु विशेष इतना है क मनुष्य का कथन (सामान्य) जीव की तरह करना चाहिए।
भगवन् ! प्रत्येक जीव का प्रत्येक जीव-प्रदेश दर्शनावरणीयकर्म के कितने अविभागपरिच्छेदों से आवेष्टितपरिवेष्टित है ? गौतम ! ज्ञानावरणीयकर्म के समान यहां भी वैमानिक-पर्यन्त कहना । इसी प्रकार अन्तरायकर्म पर्यन्त कहना । विशेष इतना है कि वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र इन चार कर्मों के विषय में नैरयिक जीवों के समान मनुष्यों के लिए भी कहना । शेष पूर्ववत् । सूत्र-४३६
भगवन् ! जिस जीव के ज्ञानावरणीयकर्म है, उसके क्या दर्शनावरणीयकर्म भी है और जिस जीव के दर्शनावरणीयकर्म है, उसके ज्ञानावरणीयकर्म भी है ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है । भगवन् ! जिस जीव के ज्ञानावरणीयकर्म है, क्या उसके वेदनीयकर्म है और जिस जीव के वेदनीयकर्म है, क्या उसके ज्ञानावरणीयकर्म भी है? गौतम ! जिस जीव के ज्ञानावरणीयकर्म है, उसके नियमतः वेदनीयकर्म है; किन्तु जिस जीव के वेदनीयकर्म है, उसके ज्ञानवरणीयकर्म कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं होता है । भगवन् ! जिसके ज्ञानावरणीयकर्म है, क्या उसके मोहनीयकर्म हैं और जिसके मोहनीयकर्म है, क्या उसके ज्ञानावरणीयकर्म है ? गौतम ! जिसके ज्ञानावरणीयकर्म है, उसके मोहनीयकर्म कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं भी होता; किन्तु जिसके मोहनीयकर्म है, उसके ज्ञानावरणीयकर्म नियमतः होता है । भगवन् ! जिसके ज्ञानवारणीयकर्म है, क्या उसके आयुष्यकर्म होता है और जिसके आयुष्यकर्म है, क्या उसके ज्ञानवरणीयकर्म है ? गौतम ! वेदनीयकर्म समान आयुष्यकर्म के साथ कहना । इसी प्रकार नामकर्म और गोत्रकर्म के साथ भी कहना । दर्शनावरणीय के समान अन्तरायकर्म के साथ भी नियमतः परस्पर सहभाव कहना।
भगवन् ! जिसके दर्शनावरणीयकर्म है, क्या उसके वेदनीयकर्म होता है और जिस जीव के वेदनीयकर्म है, क्या उसके दर्शनावरणीयकर्म होता है ? गौतम ! ज्ञानावरणीयकर्म के समान दर्शनावरणीयकर्म का भी कथन करना चाहिए । भगवन् ! जिस जीव के वेदनीयकर्म है, क्या उसके मोहनीयकर्म है और जिस जीव के मोहनीयकर्म कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं भी होता है, किन्तु जिस जीव के मोहनीयकर्म है, उसके वेदनीयकर्म नियमतः होता है । भगवन् जिस जीव के वेदनीयकर्म है, क्या उसके आयुष्यकर्म है ? गौतम ! ये दोनों कर्म नियमतः परस्पर साथ-साथ होते हैं । आयुष्यकर्म के समान नाम और गोत्रकर्म के साथ भी कहना । भगवन् ! जिस जीव के वेदनीयकर्म है, क्या उसके अन्तरायकर्म है ? गौतम ! जिस जीव के वेदनीयकर्म है, उसके अन्तरायकर्म कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं भो होता, परन्तु जिसके अन्तरायकर्म होता है, उसके वेदनीयकर्म नियमतः होता है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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