Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक
भगवन् ! जिस जीव के मोहनीयकर्म होता है, क्या उसके आयुष्यकर्म होता है, और जिसके आयुष्यकर्म होता है, क्या उसके मोहनीयकर्म होता है ? गौतम ! जिस जीव के मोहनीयकर्म है, उसके आयुष्यकर्म अवश्य होता है, किन्तु जिसके आयुष्यकर्म है, उसके मोहनीयकर्म कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं भी होता है । इसी प्रकार नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म के विषय में भी कहना चाहिए।
भगवन् ! जिस जीव के आयुष्यकर्म होता है, क्या उसके नामकर्म होता है और जिसके नामकर्म होता है, क्या उसके आयुष्यकर्म होता है ? गौतम ! ये दोनों कर्म नियमतः साथ-साथ होते हैं । गोत्रकर्म के साथ भी इसी प्रकार कहना चाहिए।
भगवन् ! जिस जीव के आयुष्यकर्म होता है, क्या उसके अन्तरायकर्म होता है ? जिसके अन्तरायकर्म है, उसके आयुष्यकर्म होता है ? गौतम ! जिसके आयुष्यकर्म होता है, उसके अन्तरायकर्म कदाचित होता है, कदाचित नहीं होता, किन्तु जिस जीव के अन्तरायकर्म होता है, उसके आयुष्यकर्म अवश्य होता है।
भगवन् ! जिस जीव के नामकर्म होता है, क्या उसके गोत्रकर्म होता है और जिसके गोत्रकर्म होता है, उसके नामकर्म होता है ? गौतम ! ये दोनों कर्म नियमतः साथ-साथ हैं । भगवन् ! जिसके नामकर्म होता है, क्या उसके अन्तरायकर्म होता है ? गौतम ! जिस जीव के नामकर्म होता है, उसके अन्तरायकर्म होता भी है और नहीं भी होता, किन्तु जिसके अन्तरायकर्म होता है, उसके नामकर्म नियमतः होता है।
भगवन् ! जिसके गोत्रकर्म होता है, क्या उसके अन्तरायक होता है ? जीव के अन्तराय कर्म होता है, क्या उसके गोत्रकर्म होता है ? गौतम ! जिसके गोत्रकर्म है, सके अन्तरायकर्म होता भी है और नहीं भी होता, किन्तु जिसके अन्तरायकर्म है, उसके गोत्रकर्म अवश्य होता है। सूत्र-४३७
भगवन् ! जीव पुद्गली है अथवा पुद्गल है । गौतम ! जीव पुदगली भी है और पुद्गल भी । भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं ? गौतम ! जैसे किसी पुरुष के पास छत्र हो तो उसे छत्री, दण्ड हो तो दण्डी, घट होने से घटी, पट होने से पटी और कर होने से करी कहा जाता है, इसी तरह हे गौतम ! जीव श्रोत्रेन्द्रिय-चक्षुरिन्द्रिय-घ्राणेन्द्रियजिह्वेन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रिय की अपेक्षा पुद्गली है तथा जीव की अपेक्षा पुद्गल कहलाता है। इस कारण कहता हूं कि जीव पुद्गली भी है और पुद्गल भी है।
भगवन् ! नैरयिक जीव पुद्गली है, अथा पुद्गल है ? गौतम ! उपर्युक्त सूत्रानुसार यहाँ भी कथन करना चाहिए। इसी प्रकार वैमानिक तक कहना चाहिए, किन्तु जिस जीव के जितनी इन्द्रियां हों, उसके उतनी इन्द्रियां करनी चाहिए
भगवन् ! सिद्धजीव पुद्गली हैं या पुद्गल हैं ? गौतम ! सिद्धजीव पुद्गली नहीं, पुद्गल हैं । भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! जीव की अपेक्षा सिद्धजीव पुद्गल हैं; (इन्द्रियां न होने से पुद्गली नहीं) हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-८ का मुनिदीपरत्नसागरकृत हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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