Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/शतकशतक /उद्देशक/ सूत्रांक के, ये दो-दो भेद कहने चाहिए । इसी प्रकार पिशाचों से लेकर गन्धर्वो तक के तथा चन्द्र से लेकर तारा पर्यन्त ज्योतिष्क देवों के एवं सौधर्मकल्पोपपन्नक से अच्युतकल्पोपपन्नक तक के और अधस्तन-अधस्तन ग्रैवेयक कल्पातीत से लेकर उपरितन-उपरितन ग्रैवेयक कल्पातीत देवप्रयोग-परिणत पुद्गलों के एवं विजय-अनुत्तरौपपातिक कल्पातीत से अपराजित-अनुत्तरौपपातिक कल्पातीत देव-प्रयोग-परिणत पुद्गलों के प्रत्येक के पर्याप्तक और अपर्याप्तक, ये दो-दो भेद कहने चाहिए । भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक-कल्पातीतदेव-प्रयोग-परिणत पुदगलों के कितने प्रकार हैं ? गौतम ! वे दो प्रकार के हैं, यथा-पर्याप्तक और अपर्याप्तक-सर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिक-कल्पातीत-देव-प्रयोग-परिणत पुद्गल ।
जो पुद्गल अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकाय-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे औदारिक, तैजस और कार्मण-शरीरप्रयोग-परिणत हैं । जो पुद्गल पर्याप्तक-सूक्ष्म-पृथ्वीकाय-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे भी औदारिक, तैजस और कार्मण-शरीर-प्रयोग-परिणत हैं । इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियपर्याप्तक तक के (प्रयोग-परिणत पुदगलों के विषय में जानना चाहिए । परन्तु विशेष इतना है कि जो पुदगल पर्याप्त-बादर-वायुकायिक-एकेन्द्रियप्रयोग-परिणत हैं, वे औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण-शरीर-प्रयोग-परिणत हैं। शेष सब पूर्ववत जानना चाहिए
जो पुद्गल अपर्याप्तक-रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे वैक्रिय, तैजस और कार्मण शरीर-प्रयोग-परिणत हैं । इसी प्रकार पर्याप्तक-रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गलों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए । इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी-नैरयिक-प्रयोग-परिणत पुद्गलों तक के सम्बन्धमें कहना।
जो पुद्गल अपर्याप्तक-सम्मूर्छिम-जलचर-प्रयोग-परिणत हैं, वे औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर-प्रयोगपरिणत हैं । इसी प्रकार पर्याप्तक के सम्बन्ध में जानना चाहिए । गर्भज-अपर्याप्तक-जलचर-(प्रयोग-परिणत-पुद् गलों) के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए । गर्भज-पर्याप्तक-जलचर-(-प्रयोग-परिणत पुद्गलों) के विषय में भी इसी तरह जानना चाहिए । विशेष यह कि पर्याप्तक बादर वायुकायिकवत् उनको चार शरीर (प्रयोग परिणत) कहना चाहिए। जिस तरह जलचरों के चार आलापक कहे हैं, उसी प्रकार चतुष्पद, उर:परिसर्प, भुजपरिसर्प एवं खेचरों (के प्रयोग-परिणत-पुद्गलों) के भी चार-चार आलापक कहने चाहिए।
जो पुद्गल सम्मूर्छिम-मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे औदारिक, तैजस और कार्मण-शरीर-प्रयोगपरिणत हैं। इसी प्रकार अपर्याप्तक-गर्भज-मनुष्य के विषय में भी कहना । पर्याप्तक गर्भज-मनुष्य के विषय में भी इसी तरह कहना । विशेषता यह कि इनमें (औदारिक से कार्मण तक) पंचशरीर- (प्रयोग-परिणत पुद्गल) कहना।
जो पुद्गल अपर्याप्तक असुरकुमार-भवनवासीदेव-प्रयोग-परिणत हैं, उनका आलापक नैरयिकों की तरह कहना । पर्याप्तक-असुरकुमारदेव-प्रयोग-परिणत पुद्गलों के विषय में भी इसी प्रकार जानना । स्तनितकुमार पर्यन्त पर्याप्तक-अपर्याप्तक दोनों में कहना । पिशाच से लेकर गन्धर्व तक वाणव्यन्तर-देव, चन्द्र से लेकर तारा-विमान पर्यन्त ज्योतिष्क-देव और सौधर्मकल्प से लेकर अच्युतकल्प पर्यन्त तथा अधःस्तन अधःस्तन-प्रैवेयक-कल्पातीत-देव से लेकर उपरितन-उपरितन-उपरितन ग्रैवेयक-कल्पातीत-देव तक एवं विजय-अनुत्तरौपपातिक-कल्पातीत-देव से लेकर सर्वार्थसिद्ध-कल्पातीत-वैमानिक-देवों तक पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों भेदों में वैक्रिय, तैजस और कार्मण-शरीर-प्रयोग-परिणत पुद्गल कहना।
जो पुद्गल अपर्याप्तक-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं । जो पुद्गल पर्याप्तक-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे भी स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं । जो अपर्याप्तबादरपृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल हैं, वे भी इसी प्रकार समझने चाहिए । पर्याप्तक भी इसी प्रकार स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग परिणत समझने चाहिए । इसी प्रकार वनस्पतिकायिक पर्यन्त-प्रत्येक के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक ओर अपर्याप्तक इन चार-चार भेदों में स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल कहने चाहिए।
न अपर्याप्तक-द्वीन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे जिह्वेन्द्रिय एवं स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं । इसी प्रकार पर्याप्तक भी जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं । इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों तक कहना । किन्तु
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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