Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/ शतकशतक /उद्देशक/ सूत्रांक कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पाँच क्रिया वाले होते हैं तथा कदाचित् अक्रिय भी होते हैं । भगवन् ! बहुत-से नैरयिक जीव, दूसरे के एक औदारिकशरीर की अपेक्षा कितनी क्रिया वाले होते हैं ? गौतम ! प्रथम दण्डक अनुसार यह दण्डक भी वैमानिक पर्यन्त कहना । विशेष यह है कि मनुष्यों का कथन औधिक जीवों की तरह जानना। भगवन् ! बहुत-से जीव, दूसरे जीवों के औदारिकशरीरों की अपेक्षा कितनी क्रिया वाले होते हैं ? गौतम ! वे कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पाँच क्रिया वाले और कदाचित् अक्रिय भी होते हैं । भगवन् ! बहुत-से नैरयिक
दूसरे जीवों के औदारिकशरीरों की अपेक्षा कितनी क्रिया वाले होते हैं ? गौतम ! तीन क्रिया वाले भी, चार क्रिया वाले भी और पाँच क्रिया वाले भी होते हैं । इसी तरह वैमानिकों पर्यन्त समझना । विशेष इतना कि मनुष्यों का कथन औधिक जीवों की तरह जानना।
भगवन् ! एक जीव, (दूसरे जीव के) वैक्रियशरीर की अपेक्षा कितनी क्रिया वाला होता है ? गौतम ! कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् क्रियारहित होता है । भगवन् ! एक नैरयिक जीव, (दूसरे जीव के) वैक्रियशरीर की अपेक्षा कितनी क्रिया वाला होता है ? गौतम ! वह कदाचित् तीन और कदाचित् चार क्रिया वाला होता है। इस प्रकार वैमानिक पर्यन्त कहना । किन्तु मनुष्य को औधिकजीव की तरह कहना।
औदारिकशरीर के समान वैक्रियशरीर की अपेक्षा भी चार दण्डक कहने चाहिए। विशेषता इतनी है कि इसमें पंचम क्रिया का कथन नहीं करना । शेष पूर्ववत् समझना । वैक्रियशरीर के समान आहारक, तैजस और कार्मण शरीर का भी कथन करना । इन तीनों के प्रत्येक के चार-चार दण्डक कहने चाहिए यावत्-भगवन् ! बहुत-से वैमानिक देव कार्मणशरीरों की अपेक्षा कितनी क्रिया वाले होते हैं ? गौतम ! तीन क्रिया वाले भी और चार क्रिया वाले भी होते हैं । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-८ - उद्देशक-७ सूत्र -४१०
उस काल और उस समय में राजगृह नगर था । वहाँगुणशीलक चैत्य था । यावत् पृथ्वी शिलापट्टक था। उस गुणशीलक चैत्य के आसपास बहुत-से अन्यतीर्थिक रहते थे। उस काल और उस समय धर्मतीर्थ की आदि करने वाले श्रमण भगवान महावीर यावत् समवसृत हुए यावत् धर्मोपदेश सूनकर परीषद् वापिस चली गई । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के बहुत-से शिष्य स्थविर भगवंत जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न इत्यादि दूसरे शतक में वर्णित गुणों से युक्त यावत् जीवन की आशा और मरण के भय से विमुक्त थे । वे श्रमण भगवान महावीर से न अति दूर, न अति निकट ऊर्ध्वजानु, अधोशिरस्क ध्यानरूप कोष्ठ को प्राप्त होकर संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते थे।
एक बार वे अन्यतीर्थिक जहाँ स्थविर भगवंत थे, वहाँ आए । वे स्थविर भगवंतों से यों कहने लगे हे आर्यो! तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत, अप्रतिहत पापकर्म तथा पापकर्म का प्रत्याख्यान नहीं किये हुए हो; इत्यादि सातवें शतक के द्वीतिय उद्देशक अनुसार कहा; यावत् तुम एकान्त बाल भी हो । इस पर उन स्थविर भगवंतों ने उन अन्यतीर्थिकों से इस प्रकार पूछा-आर्यो ! किस कारण से हम त्रिविध-त्रिविध असंयत, यावत् एकान्तबाल हैं ? तदनन्तर उन अन्यतीर्थिकों ने स्थविर भगवंतों से इस प्रकार कहा-हे आर्यो ! तुम अदत्त पदार्थ ग्रहण करते हो, अदत्त का भोजन करते हो और अदत्त का स्वाद लेते हो, इस प्रकार अदत्त का ग्रहण करते हुए, अदत्त का भोजन करते हुए और अदत्त की अनुमति देते हए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत एकान्तबाल हो।
तदनन्तर उन स्थविर भगवंतों ने उन अन्यतीर्थिकों से इस प्रकार पूछा- आर्यो ! हम किस कारण से अदत्त का ग्रहण करते हैं, अदत्त का भोजन करते हैं और अदत्त की अनुमति देते हैं, जिससे कि हम अदत्त का ग्रहण करते हुए यावत् अदत्त की अनुमति देते हुए त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्तबाल हैं ? इस पर उन अन्य-तीर्थिकों ने स्थविर भगवंतों से इस प्रकार कहा-हे आर्यो ! तुम्हारे मत में दिया जाता हुआ पदार्थ नहीं दिया गया, ग्रहण किया जाता हुआ, ग्रहण नहीं किया गया, तथा डाला जाता हुआ पदार्थ नहीं डाला गया, ऐसा कथन है; इसलिए हे आर्यो!
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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