Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 168
________________ आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक काया से करवाता नहीं, ४७. अथवा मन से अनुमोदन करता नहीं, ४८. अथवा वचन से अनुमोदन करता नहीं, ४९. अथवा काया से अनुमोदन करता नहीं। भगवन् ! वर्तमानकालीन संवर करता हुआ श्रावक त्रिविध-त्रिविध संवर करता है ? गौतम ! जो उनचास भंग प्रतिक्रमण के विषय में कहे गए हैं, वे ही संवर के विषय में कहना । भगवन् ! भविष्यत् काल का प्रत्याख्यान करता हुआ श्रावक क्या त्रिविध-त्रिविध प्रत्याख्यान करता है ? गौतम ! पहले कहे अनुसार यहाँ भी उनचास भंग कहना। भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पहले स्थूल मृषावाद का प्रत्याख्यान नहीं किया, किन्तु पीछे वह स्थूल मृषावाद का प्रत्याख्यान करता हुआ क्या करता है ? गौतम ! प्राणातिपात के समान मषावाद के सम्बन्ध में भी एक सौ सैंतालीस भंग कहना । इसी प्रकार स्थूल अदत्तादान के विषय में, स्थूल मैथुन के विषय में एवं स्थूल परिग्रह के विषय में भी पूर्ववत् प्रत्येक के एक सौ सैंतालीस-एक सौ सैंतालीस त्रैकालिक भंग कहना। श्रमणोपासक ऐसे होते हैं, किन्तु आजीविकोपासक ऐसे नहीं होते। सूत्र-४०३ आजीविक के सिद्धान्त का यह अर्थ है कि समस्त जीव अक्षीणपरिभोजी होते हैं । इसलिए वे हनन करके, काटकर, भेदन करके, कतर कर, उतार कर और विनष्ट करके खाते हैं । ऐसी स्थिति (संसार के समस्त जीव असंयत और हिंसादिदोषपरायण हैं) में आजीविक मत में ये बारह आजीविकोपासक हैं-ताल, तालप्रलम्ब, उद्विध, संविध, अवविध, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अनुपालक, शंखपालक, अयम्बुल और कातरक । इस प्रकार ये बारह आजीविकोपासक हैं । इनका देव अरहंत है । वे माता-पिता की सेवा-शुश्रूषा करते हैं । वे पाँच प्रकार के फल नहीं खाते-उदुम्बर के फल, वड़ के फल, बोर, सत्तर के फल, पीपल फल तथा प्याज, लहसुन, कन्दमूल के त्यागी होते हैं तथा अनिाछित और नाक नहीं नाथे हुए बैलों से त्रस प्राणी की हिंसा से रहित व्यापार द्वारा आजीविका करते हुए विहरण करते हैं । जब इन आजीविकोपासकों को यह अभीष्ट है, तो फिर जो श्रमणोपासक हैं, उनका तो कहना ही क्या ? जो श्रमणोपासक होते हैं, उनके लिए ये पन्द्रह कर्मादान स्वयं करना, दूसरों से कराना और करते हुए का अनुमोदन करना कल्पनीय नहीं है, यथा-अंगारकर्म, वनकर्म, शाकटिक कर्म, भाटीकर्म, स्फोटककर्म, दन्तवाणिज्य. लाक्षावाणिज्य, रसवाणिज्य, विषवाणिज्य, यंत्रपीडनकर्म. निन्छन कर्म. दावाग्निदापनता, सरो-ह्रद तडागशोषणता और असतीपोषणता । ये श्रमणोपासक शुक्ल, शुक्लाभिजात होकर काल के समय-मृत्यु प्राप्त करके किन्हीं देवलोकों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं। सूत्र-४०४ भगवन् ! देवलोक कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! चार प्रकार के, यथा-भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी, वैमानिक । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। शतक-८ - उद्देशक-६ सूत्र-४०५ भगवन् ! तथारूप श्रमण अथवा माहन को प्रासुक एवं एषणीय अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार द्वारा प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक को किस फल की प्राप्ति होती है ? गौतम ! वह एकान्त रूप से निर्जरा करता है; उसके पापकर्म नहीं होता । भगवन् ! तथारूप श्रमण या माहन को अप्रासुक एवं अनेषणीय आहार द्वारा प्रतिलाभित करते हुए श्रमणोपासक को किस फल की प्राप्ति होती है ? गौतम ! उसके बहुत निर्जरा होती है और अल्पतर पापकर्म होता है । भगवन् ! तथारूप असंयत, अविरत, पापकर्मों का जिसने निरोध और प्रत्याख्यान नहीं किया; उसे प्रासुक या अप्रासुक, एषणीय या अनेषणीय अशन-पानादि द्वारा प्रतिलाभित करते हुए श्रमणोपासक को क्या फल प्राप्त होता है ? गौतम! उसे एकान्त पापकर्म होता है, किसी प्रकार की निर्जरा नहीं होती। सूत्र-४०६ गृहस्थ के घर में आहार ग्रहण करने की बुद्धि से प्रविष्ट निर्ग्रन्थ को कोई गृहस्थ दो पिण्ड ग्रहण करने के लिए मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 168

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