Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/सूत्रांक एक-एक इन्द्रिय बढ़ानी चाहिए।
जो पुद्गल अपर्याप्त रत्नप्रभा (आदि) पृथ्वी नैरयिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे श्रोत्रेन्द्रिय-चक्षुरिन्द्रिय - घ्राणेन्द्रिय-जिह्वेन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं । इसी प्रकार पर्याप्तक पुद्गल के विषय में भी पूर्ववत् कहना । पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक, मनुष्य और देव, इन सबके विषय में भी इसी प्रकार कहना, यावत् जो पुद्गल पर्याप्तसर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक-कल्पातीतदेव-प्रयोग-परिणत हैं, वे सब श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं
जो पुद्गल अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक-तैजस-कार्मणशरीर-प्रयोग-परिणत हैं, वे स्पर्शेन्दिय-प्रयोग-परिणत हैं । जो पदगल पर्याप्त-सक्षम-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक-तैजस-कार्मणशरीरप्रयोग-परिणत हैं. वे भी स्पर्शन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं । अपर्याप्त-बादरकायिक एवं पर्याप्त बादर-पथ औदारिकादि शरीरत्रय-प्रयोगपरिणत-पुदगल के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए । इसी प्रकार इस अभिलाप के द्वारा जिस जीव के जितनी इन्द्रियाँ और शरीर हों, उसके उतनी इन्द्रियों तथा उतने शरीरों का कथन करना चाहिए यावत् जो पुद्गल पर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक-कल्पातीतदेव-पंचेन्द्रिय-वैक्रिय-तैजस-कार्मण-शरीर-प्रयोगपरिणत हैं, वे श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं।
जो पुद्गल अपर्याप्तक-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से कृष्णवर्ण, नीलवर्ण, रक्तवर्ण, पीतवर्ण एवं श्वेतवर्ण रूप से परिणत हैं, गन्ध से सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध रूप से परिणत हैं, रस से तीखे, कटु, काषाय, खट्टे और मीठे इन पाँचों रसरूप में परिणत हैं, स्पर्श से कर्कशस्पर्श यावत् रूक्षस्पर्श के रूप में परिणत हैं और संस्थान से परिमण्डल, वृत्त, त्र्यंस, चतुरस्र और आयत, इन पाँचों संस्थानों के रूप में परिणत हैं । जो पुद्गल पर्याप्तक-सूक्ष्म पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, उन्हें भी इसी प्रकार परिणत जानना । इसी प्रकार क्रमश: सभी के विषय में जानना चाहिए । यावत् जो पुद्गल पर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक-देव-पंचेन्द्रिय-वैक्रियतैजस-कार्मण-शरीरप्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण रूप में यावत् संस्थान से आयत संस्थान तक परिणत हैं।
जो पुद्गल अपर्याप्तक-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक-तैजस-कार्मण-शरीर-प्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण के रूप में भी परिणत हैं, यावत् आयत-संस्थान-रूप में भी परिणत हैं । इसी प्रकार पर्याप्तक-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक-तैजस-कार्मणशरीर-प्रयोग-परिणत हैं, वे भी इसी तरह वर्णादि-परिणत हैं। इसी प्रकार यथानुक्रम से जानना । जिसके जितने शरीर हों, उतने कहने चाहिए, यावत् जो पुद्गल पर्याप्त-सर्वार्थ सिद्धअनुत्तरोपपातिकदेव-पंचेन्द्रिय-वैक्रिय-तैजस-कार्मण-शरीरप्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण के रूप में, यावत संस्थान से आयत-संस्थानरूप में परिणत हैं।
___ जो पुद्गल अपर्याप्तक-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण के रूप में परिणत हैं, यावत् संस्थान से आयत-संस्थान रूप में परिणत हैं । जो पुद्गल पर्याप्तक-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिकएकेन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग परिणत हैं, वे भी इसी प्रकार जानने चाहिए । इसी प्रकार अनुक्रम से आलापक कहने चाहिए । विशेष यह कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों उतनी कहनी चाहिए, यावत् जो पुद्गल पर्याप्त-सर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिक-पंचेन्द्रिय-श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण के रूप में, यावत् संस्थान से आयत संस्थान के रूप में परिणत हैं।
जो पुद्गल अपर्याप्तक-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक-तैजस-कार्मणशरीर-स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोगपरिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण के रूप में भी परिणत हैं, यावत् संस्थान से आयत-संस्थान के रूप में परिणत हैं । जो पुद्गल पर्याप्तक-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक-तैजस-कार्मणशरीर-स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे भी इसी तरह जानना । इसी प्रकार अनुक्रम से सभी आलापक कहने चाहिए । विशेषतया जिसके जितने शरीर और इन्द्रियों हों, उसके उतने शरीर और उतनी इन्द्रियों का कथन करना चाहिए, यावत् जो पुद्गल पर्याप्तक-सर्वार्थ सिद्धअनुत्तरौपपातिकदेव-पंचेन्द्रिय-वैक्रिय-तैजस-कार्मणशरीर तथा श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोगपरिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण के रूप में यावत् संस्थान से आयत संस्थान के रूपों में परिणत हैं । इस प्रकार ये नौ दण्डक पूर्ण हुए।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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